UNSC Reforms: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आज अपनी उपादेयता खो रहा है। इसके सामने विश्वसनीयता का संकट है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 की दुनिया के ढाँचे से 2025 की जटिल वास्तविकताओं तक बहुत कुछ बदल चुका है। युद्ध, तनाव और तीसरे विश्व युद्ध की आशंकाओं के बीच आज सुरक्षा परिषद में सुधार की अनिवार्यता पर विचार करें तो बहुत कुछ साफ हो जाता है। आज जबकि दुनिया एक बार फिर ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ बड़े युद्धों, सैन्य संघों और तेज़ी से बदलते शक्ति-संतुलन की आशंकाएँ बढ़ रही हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध लगातार तीसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है। पश्चिम एशिया (Middle East) इज़राइल–हमास और सीरिया-ईरान टकराव से भड़का हुआ है। एशिया-प्रशांत (Asia-Pacific) में चीन-ताइवान तनाव अमेरिकी हस्तक्षेप की वजह से बड़ी टकराव की ओर बढ़ रहा है। दक्षिण चीन सागर में नौसैनिक टकराव सामान्य बात हो गई है। इन स्थितियों ने विशेषज्ञों को यह कहने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया “नए शीत युद्ध की स्थिति” में लौट आई है — बल्कि कुछ इसे संभावित तीसरे विश्व युद्ध का पूर्वाभास कह रहे हैं।
ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का बेअसर होना, बड़े संघर्षों पर असहमति के कारण ठप पड़ जाना, और वैश्विक संकटों के समय विभाजित दिखना दुनिया की सबसे बड़ी चिंता बन गया है। यह स्थिति केवल संस्थागत कमजोरी नहीं है, बल्कि यह बताती है कि UNSC 1945 के बाद जिस मकसद से बना था, वह आज की दुनिया में कहीं कमज़ोर पड़ता जा रहा है।
इसी संदर्भ में UNSC का इतिहास, उसका गठन, उद्देश्य, कमियाँ और भारत जैसे देशों की बढ़ती भूमिका समझना अत्यंत अहम है।
UNSC का गठन — एक अधूरी उम्मीद की कहानी
1. गठन का समय और पृष्ठभूमि
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थापना 1945 में संयुक्त राष्ट्र चार्टर के साथ हुई थी। यह वही समय था जब पूरी दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता से उभर रही थी — हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु हमले ने मानव सभ्यता को एक नए युग में धकेल दिया था। विश्व की सरकारों को एहसास हुआ कि:
- यदि वैश्विक शांति के लिए कोई ठोस और वास्तविक तंत्र नहीं बनाया गया,
- यदि महाशक्तियाँ आपस में नियंत्रित या समन्वित नहीं रही,
- और यदि विवादों को युद्ध से पहले रोकने का तंत्र न बनाया गया,
तो मानव सभ्यता किसी भी क्षण नष्ट हो सकती है।
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले मौजूद लीग ऑफ नेशंस अपनी कमजोर संरचना, शक्तिशाली देशों की असहमति और बाध्यकारी शक्ति की कमी की वजह से विफल हुआ था। उसी विफलता से सीखते हुए UNSC को इस तरह बनाया गया कि इसके पास:
- वास्तविक शक्ति,
- सैन्य कार्रवाई की अनुमति,
- प्रतिबंध लगाने की क्षमता,
- और वैश्विक निर्णयों पर बाध्यकारी अधिकार हो।
2. पहली बैठक — इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन
UNSC की पहली बैठक 17 जनवरी 1946 को लंदन के Church House, Westminster में हुई। उस समय दुनिया में आशा की एक नई किरण थी कि यह संस्था भविष्य में युद्ध रोकेगी और दुनिया को स्थायी शांति की ओर ले जाएगी।
3. संरचना: 15 सदस्यीय शक्ति केंद्र
UNSC में कुल 15 सदस्य हैं—
- 5 स्थायी (P5): अमेरिका, रूस (तब सोवियत संघ), चीन, ब्रिटेन, फ्रांस
- 10 अस्थायी: जिन्हें 2 वर्षों के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा चुनती है।
स्थायी सदस्यों के पास वीटो शक्ति है — कोई भी एक सदस्य किसी भी प्रस्ताव को रोक सकता है, चाहे दुनिया का बड़ा हिस्सा उसके पक्ष में क्यों न हो।
4. उद्देश्य और शक्तियाँ
चार्टर के अध्याय VII के तहत UNSC को अधिकार दिया गया कि:
- वह अंतरराष्ट्रीय शांति को खतरे की पहचान करे,
- बल प्रयोग तक का निर्णय ले सके,
- प्रतिबंध लगा सके,
- शांति सेना भेज सके,
- नए देशों की UN सदस्यता की सिफारिश करे,
- और चार्टर में संशोधन को रोक सके या मंज़ूर कर सके।
ये शक्तियाँ बताती हैं कि UNSC दुनिया का “सुरक्षा मस्तिष्क” है — लेकिन समय के साथ इस मस्तिष्क की निर्णय-क्षमता पक्षपात और विफलताओं के कारण कमजोर होती गई।
UNSC की कमियाँ — 1945 का ढाँचा 2025 की दुनिया
आज जब रूस-यूक्रेन युद्ध, गाज़ा संकट, चीन-ताइवान तनाव, आतंकवाद, साइबर युद्ध और जलवायु संघर्ष वैश्विक सुरक्षा के सामने सबसे बड़े खतरे बन चुके हैं, UNSC लगातार विभाजित दिखा है। इसके पीछे कई गहरी संरचनात्मक समस्याएँ हैं।
1. पुरानी संरचना — नई दुनिया के लिए अनुपयुक्त
P5 का चयन WWII की “विजेता शक्तियों” के आधार पर हुआ था।
लेकिन 2025 की दुनिया बिल्कुल अलग है।
- तब चीन कमजोर था — आज महाशक्ति है।
- भारत उपनिवेश था — आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।
- अफ्रीका उपेक्षित था — आज दुनिया का सबसे तेज़ उभरता आर्थिक और रणनीतिक क्षेत्र है।
- जापान और जर्मनी हारने वाले देश थे — आज दोनों शीर्ष आर्थिक शक्तियाँ हैं।
UNSC इस नए संतुलन को प्रतिबिंबित नहीं करता।
2. ग्लोबल साउथ की आवाज़ दबती जा रही है
अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया और अरब जगत — मिलकर दुनिया की 70% आबादी और लगभग 40% अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन UNSC के निर्णयों में उनकी आवाज़ सीमित है।
यही कारण है कि कई विश्लेषकों ने UNSC को “सत्ता का औपनिवेशिक ढांचा” कहा है।
3. वीटो शक्ति का दुरुपयोग
वीटो UNSC की सबसे गंभीर कमजोरी है।
इसके कारण:
- यूक्रेन युद्ध पर ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी,
- गाज़ा में बढ़ते मानवाधिकार संकट पर निर्णय टलते रहे,
- सीरिया में 10 वर्षों से अधिक चले संघर्ष में सार्थक हस्तक्षेप नहीं हो पाया,
- सर्बिया-कोसोवो, सूडान, और यमन पर निर्णय बार-बार अटकते रहे।
जब भी प्रस्ताव किसी P5 देश के रणनीतिक हितों के खिलाफ होता है, वह वीटो का इस्तेमाल कर देता है।
यह स्थिति UNSC को निष्क्रिय बनाती है।
4. चार्टर संशोधन की कठिनाई
UN चार्टर में संशोधन के लिए 193 में से 129 देशों का समर्थन चाहिए —
और पाँचों स्थायी सदस्यों की सहमति भी।
यही कारण है कि UNSC सुधार प्रस्ताव तीन दशक से लटका हुआ है।
राजनीतिक इच्छा-शक्ति कमजोर है और शक्तियों का संतुलन असमान।
5. वैश्विक वैधता का संकट
दुनिया भर में यह धारणा फैल रही है कि:
- UNSC शक्तिशाली देशों के भू-राजनीतिक हितों का मंच बन गया है।
- इसके निर्णय लोकतांत्रिक नहीं हैं।
- इसकी वैधता (legitimacy) कम हो रही है।
- छोटे और विकासशील देशों की आवाज़ अनसुनी रह जाती है।
इसका परिणाम यह है कि कई संघर्ष क्षेत्र UNSC पर भरोसा खो चुके हैं।
UNSC की विफलता, तीसरे विश्व युद्ध की आशंका
1. रूस–यूक्रेन युद्ध: UNSC की निष्क्रियता का जीवंत उदाहरण
रूस, जो स्वयं UNSC का स्थायी सदस्य है, युद्ध का पक्षकार है।
ऐसे में P5 के भीतर विभाजन स्वाभाविक था —
और यही कारण है कि सुरक्षा परिषद इस युद्ध में कोई निर्णायक रुख नहीं ले सकी।
विश्लेषक कहते हैं कि यदि UNSC 2022 में सक्रिय होता,
सख्त प्रतिबंधों, मध्यस्थता और शांति प्रक्रिया पर काम करता,
तो युद्ध इतनी लंबी अवधि में न बदलता।
लेकिन वीटो ने समाधान रोक दिया।
2. पश्चिम एशिया — गाज़ा, सीरिया, ईरान–इज़राइल तनाव
पश्चिम एशिया में:
- इज़राइल–हमास युद्ध,
- सीरियाई संघर्ष,
- ईरान–सऊदी प्रतिद्वंद्विता,
- और हाल के वर्षों में इज़राइल–ईरान टकराव
सभी पर UNSC फैसलों में कई बार अमेरिका और रूस-चीन के बीच टकराव देखा गया।
परिणाम:
निर्णय रुकते गए, और संघर्ष बढ़ते गए।
3. एशिया-प्रशांत — ताइवान और दक्षिण चीन सागर का संकट
चीन ताइवान को अपने क्षेत्र का हिस्सा मानता है; अमेरिका उसे संरक्षित करने की बात करता है।
यह स्थिति एशिया में युद्ध का सबसे बड़ा संभावित ट्रिगर है।
UNSC यहाँ भी कुछ नहीं कर सका — क्योंकि चीन स्वयं P5 सदस्य है।
4. तीसरे विश्व युद्ध की आशंकाएँ — विशेषज्ञ क्यों चिंतित हैं?
कई विश्लेषक कहते हैं कि:
- रूस-चीन–ईरान एक ध्रुव पर
- अमेरिका-यूरोप-जापान-ऑस्ट्रेलिया दूसरे ध्रुव पर
एक नई वैश्विक धुरी संरचना बन चुकी है।
यूक्रेन, गाज़ा, ताइवान — इन तीन मोर्चों पर बढ़ते तनाव ने दुनिया को गंभीर जोखिम में डाल दिया है।

UNSC की निष्क्रियता इन तनावों को नियंत्रित करने में असफल रही है।
यही कारण है कि आज सुधार की आवाज़ केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि अस्तित्वगत (existential) आवश्यकता बन चुकी है।
भारत का दृष्टिकोण — सुधार ज़रूरत नहीं, अनिवार्यता है?
भारत का मानना है कि UNSC की संरचना केवल पुरानी नहीं, बल्कि अन्यायपूर्ण है —
एक ऐसी दुनिया में जहाँ शक्ति-संतुलन पूरी तरह से बदल चुका है।
1. भारत क्यों कहता है कि UNSC सुधार आवश्यक है?
(1) वैश्विक वास्तविकता का प्रतिनिधित्व नहीं
1945 में भारत उपनिवेश था —
2025 में भारत:
- दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र,
- तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था,
- अंतरिक्ष शक्ति,
- परमाणु शक्ति,
- वैश्विक दक्षिण का नेता
है।
अब भी उसे UNSC में स्थायी सदस्यता नहीं मिली — यह वैश्विक न्याय की दृष्टि से गलत है।
(2) अफ्रीका और एशिया की उपेक्षा
स्थायी सदस्यों में:
- अफ्रीका: 0
- एशिया: केवल चीन
यह दुनिया के जनसांख्यिकीय और भू-राजनीतिक संतुलन के विपरीत है।
(3) वीटो का एकाधिकार
भारत मानता है कि वीटो या तो समाप्त होना चाहिए या उसका विस्तार होना चाहिए।
क्योंकि आज पाँच देशों का एकाधिकार दुनिया के लिए जोखिम पैदा कर रहा है।
(4) वैश्विक संकटों पर UNSC की विफलता
भारत ने यूक्रेन, गाज़ा और एशिया-प्रशांत तनाव पर बार-बार कहा है कि UNSC की निष्क्रियता दुनिया को असुरक्षित बना रही है।
- भारत क्यों स्थायी सदस्य बनना चाहिए?
- जनसंख्या और लोकतंत्र
भारत दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे स्थिर लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
- आर्थिक शक्ति
भारत विश्व अर्थव्यवस्था के शीर्ष क्लब में शामिल हो चुका है।
- सैन्य क्षमता
भारत एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है।
- शांति मिशनों में वैश्विक नेतृत्व
भारत ने UN peacekeeping में सबसे बड़ा योगदान दिया है।
- ग्लोबल साउथ की आवाज़
भारत विकासशील देशों का प्रतिनिधि बनकर उभर रहा है।
- भारत किन सुधारों की मांग करता है?
- UNSC के स्थायी सदस्यों का विस्तार
- G4 (भारत, जापान, जर्मनी, ब्राज़ील) को शामिल करना
- वीटो को सीमित करना
- अफ्रीका को दो स्थायी सीट देना
- अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाना
- निर्णय-प्रक्रिया को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाना
- बाधाएँ: भारत को सदस्यता क्यों नहीं मिल पा रही?
- चीन का विरोध
- पाकिस्तान-तुर्की जैसे देशों की कूटनीति
- P5 देशों का स्वार्थ
- निर्णय प्रक्रिया की अत्यधिक जटिलता
लेकिन समर्थक देशों की सूची बढ़ती जा रही है — अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, जापान, ब्राज़ील, और अधिकांश अफ्रीकी देश भारत के पक्ष में हैं।
भविष्य — सुधार होगा या दुनिया नए संघर्षों की ओर बढ़ेगी?
दुनिया आज दो रास्तों पर खड़ी है:
रास्ता 1 — UNSC सुधार (Reform)
यदि UNSC लोकतांत्रिक बने, नई शक्तियों को जगह दे, वीटो पर नियंत्रण लगाए, और वैश्विक दक्षिण को प्रतिनिधित्व दे — तो बड़ा युद्ध संभवतः रोका जा सकता है।
रास्ता 2 — संघर्ष और ध्रुवीकरण
यदि UNSC उसी पुराने ढाँचे में चलता रहा, और महाशक्तियाँ अपनी-अपनी धुरी बनाए रखें, तो संघर्ष बढ़ेंगे। यूक्रेन, ताइवान, गाज़ा — इनमें से किसी एक मोर्चे पर गलती एक वैश्विक युद्ध ट्रिगर कर सकती है।
https://x.com/OyeBhartsingh/status/1991047644987466061?s=20
UNSC का पुनर्गठन मानव सभ्यता के अस्तित्व की जरूरत बन गया है। आज दुनिया जिन संकटों का सामना कर रही है,वे 1945 के दौर से कहीं ज्यादा जटिल हैं। परमाणु हथियारों से कहीं बड़े खतरे अब साइबर हमले, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित युद्ध, स्पेस-वॉर, बायो-सिक्योरिटी, और जलवायु संघर्ष हैं। UNSC अगर समय रहते नहीं बदला — तो यह संस्था केवल कागज़ी ढाँचा बनकर रह जाएगी।
https://tesariaankh.com/gaza-peace-plan-russia-opposes-global-divide-on-trump-iniciative/
भारत जैसे देशों की मांग
सिर्फ राजनीतिक नहीं है — यह वैश्विक स्थिरता की माँग है, यह युद्ध रोकने की माँग है, यह तीसरे विश्व युद्ध की आशंका से दुनिया को बचाने की माँग है।
भारत का उदय, ग्लोबल साउथ का उभार, और महाशक्तियों की ध्रुवीकृत राजनीति यह संदेश देती है: UNSC का पुनर्गठन अब विकल्प नहीं — मानव सभ्यता की अनिवार्य आवश्यकता है।
‘ऐतिहासिक अन्याय’ को दूर करने के लिए UNSC में सुधार की मांग
आईएएनएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) की अध्यक्ष एनालेना बेयरबॉक ने सुरक्षा परिषद में तत्काल सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया है। उनकी प्रवक्ता ला नीस कॉलिन्स के अनुसार, बेयरबॉक का लक्ष्य परिषद की पुरानी संरचना को ठीक करना है, जिसे वह ‘ऐतिहासिक रूप से अन्यायपूर्ण’ मानती हैं। कॉलिन्स ने बताया कि अध्यक्ष का मानना है कि सुरक्षा परिषद में सुधार पर खुलकर चर्चा और विचार-विमर्श होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बेयरबॉक कई बार यह बात कह चुकी हैं, जैसे कि उदाहरण के लिए अफ्रीका महाद्वीप के किसी भी देश का सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य न होना एक ऐतिहासिक अन्याय है और यह परिषद आज की दुनिया का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती।
बेयरबॉक का मत
महासभा की अध्यक्ष के रूप में, बेयरबॉक ने किसी विशेष सुधार योजना का समर्थन नहीं किया है, लेकिन वे यह स्पष्ट कर चुकी हैं कि यह संस्था 80 वर्ष पहले एक बिल्कुल अलग समय में बनी थी और अब इसे 21वीं सदी की जरूरतों के अनुसार बदलना आवश्यक है। बेयरबॉक जर्मनी की पूर्व विदेश मंत्री रही हैं और उस समय भी वे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने, तथा भारत और जर्मनी को स्थायी सीट देने की पक्षधर थीं। जर्मनी जी-4 समूह का हिस्सा है, जिसमें भारत, ब्राज़ील और जापान शामिल हैं। यह समूह सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए प्रयास करता है। पिछले साल, उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ जी4 विदेश मंत्रियों की एक मीटिंग में हिस्सा लिया और उस संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर किए, जिसमें चारों देशों ने एक-दूसरे को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए समर्थन दोहराया। उस बयान में यह भी कहा गया था कि सुरक्षा परिषद सुधार से जुड़ी इंटर-गवर्नमेंटल नेगोशिएशन प्रोसेस (आईजीएन) में वर्षों से ठोस प्रगति न होने पर मंत्रियों ने गहरी चिंता जताई और टेक्स्ट-बेस्ड बातचीत जल्द शुरू करने की मांग की। महासभा की अध्यक्ष के रूप में बेयरबॉक ने हाल ही में कुवैत के स्थायी प्रतिनिधि तारिक एम. ए. एम. अलबनाई और नीदरलैंड्स की लीज़ ग्रेगोइरे-वैन हारेन को आईजीएन वार्ताओं के सह-अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया है, ताकि इस बातचीत को फिर से शुरू किया जा सके।








