Samajwadi Party: उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी सत्ता की धुरी रही समाजवादी पार्टी (सपा) आज एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जहां नेतृत्व की स्पष्टता, सामाजिक विस्तार और राजनीतिक नैरेटिव—तीनों पर सवाल खड़े हो रहे हैं। पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वे अपने पुराने कोर वोट बैंक को बचाए रखें या बदलते सामाजिक–राजनीतिक यथार्थ के अनुसार पार्टी को नए सिरे से गढ़ें। यही असमंजस सपा के पतन की सबसे बड़ी वजह बनता जा रहा है।
1. पतन की पृष्ठभूमि: कोर वोट बैंक का दायरा और सीमाएं
समाजवादी पार्टी की राजनीति लंबे समय तक यादव–मुस्लिम (MY) समीकरण के इर्द-गिर्द घूमती रही। यह समीकरण एक समय सपा की सबसे बड़ी ताकत था, लेकिन बदलती राजनीति में यही उसकी सीमा भी बन गया।
- भाजपा ने बहुसंख्यक राजनीति के जरिए गैर-यादव ओबीसी, दलितों और सवर्णों के बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ लिया
- सपा अपने पारंपरिक आधार से बाहर विश्वसनीय विस्तार नहीं कर पाई
- नतीजा यह हुआ कि सपा वोट तो हासिल करती रही, लेकिन सत्ता के लिए जरूरी बहुमत से दूर होती गई
आज स्थिति यह है कि सपा का वोट प्रतिशत मजबूत दिखता है, लेकिन सीटों में तब्दील नहीं हो पाता।
2. अखिलेश यादव का असमंजस: सुरक्षा बनाम विस्तार
अखिलेश यादव की राजनीति का केंद्रीय सवाल यही है—
क्या पुराने वोट बैंक से छेड़छाड़ किए बिना नया सामाजिक आधार बनाया जा सकता है?
इस डर के चलते:
- पार्टी की भाषा और एजेंडा सीमित दायरे में सिमट जाता है
- बहुसंख्यक समाज के बड़े वर्ग को सपा पर भरोसा नहीं बन पाता
- भाजपा सपा को “एक वर्ग विशेष की पार्टी” के रूप में पेश करने में सफल रहती है
यह रणनीतिक रक्षात्मकता अखिलेश यादव को आक्रामक विपक्ष बनने से रोकती है।
3. नैरेटिव की कमी: भाजपा एजेंडा सेट करती है, सपा प्रतिक्रिया देती है
आज की यूपी राजनीति में नैरेटिव ही सत्ता की कुंजी है। भाजपा हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और कानून-व्यवस्था के मुद्दों पर एजेंडा तय करती है, जबकि सपा अक्सर उन्हीं मुद्दों पर प्रतिक्रिया देती नजर आती है।
सपा की मौजूदा राजनीति में कमी साफ दिखती है:
- कोई स्पष्ट बहुसंख्यक अपील नहीं
- विकास, रोजगार और सामाजिक समरसता पर सशक्त वैकल्पिक दृष्टि का अभाव
- कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर रक्षात्मक रुख
जब तक सपा अपना स्वतंत्र राजनीतिक नैरेटिव नहीं गढ़ेगी, वह भाजपा की शर्तों पर खेलती रहेगी।
4. नेतृत्व का संकट: पार्टी पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव
समाजवादी पार्टी की एक बड़ी कमजोरी उसका आंतरिक ढांचा है। आज भी पार्टी के प्रमुख पदों, टिकट वितरण और निर्णय प्रक्रिया में सीमित सामाजिक प्रतिनिधित्व दिखाई देता है।
अगर सपा को पुनरुत्थान करना है तो:
- गैर-यादव ओबीसी नेतृत्व को निर्णायक भूमिकाओं में लाना होगा
- दलित और सवर्ण चेहरों को केवल प्रतीकात्मक नहीं, संगठनात्मक शक्ति देनी होगी
- जिला, ब्लॉक और बूथ स्तर पर सामाजिक संतुलन दिखाना होगा
जब तक पार्टी का चेहरा बदलेगा नहीं, तब तक पार्टी की छवि भी नहीं बदलेगी।
https://x.com/SanthoshBRSUSA/status/2000067864787870094?s=20
5. बहुसंख्यक राजनीति से दूरी: रणनीतिक भूल
यह सच्चाई है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता बहुसंख्यक समाज के समर्थन के बिना संभव नहीं है। भाजपा ने इसे रणनीति के केंद्र में रखा, जबकि सपा इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाने से बचती रही।
बहुसंख्यक राजनीति का अर्थ कट्टरता नहीं, बल्कि:
- सांस्कृतिक आत्मविश्वास
- कानून-व्यवस्था पर स्पष्ट संदेश
- विकास और सुरक्षा का भरोसा
यदि सपा इन मुद्दों पर अपनी भाषा और नीति तय नहीं करती, तो वह सत्ता की दौड़ में पिछड़ी ही रहेगी।
6. पुनरुत्थान का रास्ता: सपा को क्या करना होगा?
समाजवादी पार्टी के पुनर्निर्माण के लिए कुछ कठोर लेकिन जरूरी फैसले लेने होंगे:
(1) नया राजनीतिक नैरेटिव
- “सामाजिक न्याय + सुशासन + बहुसंख्यक भरोसा”
- भाजपा के एजेंडे की नकल नहीं, उसका विकल्प
(2) संगठनात्मक पुनर्गठन
- पार्टी पदों पर सामाजिक विविधता
- केवल वफादारी नहीं, प्रदर्शन आधारित जिम्मेदारी
(3) नेतृत्व में विस्तार
- अखिलेश यादव को केवल अध्यक्ष नहीं, नेतृत्व निर्माता बनना होगा
- नए चेहरों को आगे बढ़ाकर पार्टी की पहचान बदलनी होगी
(4) रक्षात्मक राजनीति से बाहर निकलना
- हर मुद्दे पर सफाई नहीं, आक्रामक प्रस्तुति
- कानून-व्यवस्था, विकास और पहचान के सवालों पर स्पष्टता
सपा के सामने आखिरी बड़ा मोड़
समाजवादी पार्टी आज जिस दौर में है, वहां यथास्थिति बनाए रखना भी हार को स्वीकार करने जैसा है। केवल अपने कोर मतदाताओं के सहारे सत्ता की कल्पना करना राजनीतिक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं। अखिलेश यादव के सामने विकल्प साफ हैं या तो वे पार्टी को एक व्यापक सामाजिक–राजनीतिक मंच में बदलें, या फिर सपा धीरे-धीरे एक स्थायी विपक्षी पार्टी बनकर रह जाए। उत्तर प्रदेश की राजनीति किसी एक वर्ग से नहीं चलती। जो यह समझ गया, वही सत्ता तक पहुंचा। अब देखना यह है कि समाजवादी पार्टी इस सच्चाई को रणनीति में बदल पाती है या नहीं।
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