Bollywood Legends: भारतीय सिनेमा का इतिहास केवल फिल्मों के रिकॉर्ड या बॉक्स ऑफिस नंबरों का लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि यह उन सपनों, संघर्षों और संयोगों की कहानी है जिनसे सितारे जन्म लेते हैं। किसे पता था कि शिमला का एक नौजवान नौसेना की वर्दी पहनने मुंबई आएगा और एक दिन उसी शहर की चमकती रौशनी उसे हिंदी फिल्म दुनिया का ‘नेचुरल स्टार’ बना देगी? या वह कोलकाता में जन्मा एक साधारण-सा लड़का थिएटर से निकलकर बॉलीवुड का ऐसा चेहरा बनेगा जिसकी मुस्कान और शालीन अदाकारी दशकों तक दर्शकों के दिल में घर बनाए रखेगी? और वह नौजवान जिसकी टोपी, हाथ की लचक और अंदाज पर लाखों दिल धड़कते थे—देवानंद—जो फ्लॉप फिल्मों के बाद भी कभी निराश नहीं हुए और हर असफलता को नई शुरुआत की तरह लिया।
यह कहानी तीन पीढ़ियों के तीन चमकते सितारों की है—मोतीलाल, शशि कपूर और देवानंद—जिन्होंने भारतीय सिनेमा को वह रूप दिया जिसे आज हम सुनहरे दौर के नाम से जानते हैं।
मोतीलाल – नौसेना की राह से सिनेमा के सितारों तक
4 दिसंबर 1910, शिमला। ठंडी हवा, पहाड़ी गलियां और एक बालक जिसकी आंखों में भविष्य की चमक। नाम — मोतीलाल राजवंश। बचपन शिमला की शांत वादियों में बीता, पढ़ाई दिल्ली में हुई और फिर नौसेना में जाने का सपना लेकर मुंबई पहुंच गए। शायद जीवन की पटकथा कहीं और लिखी जा चुकी थी।
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प्रवेश परीक्षा का दिन नजदीक था, तभी उनके शरीर ने साथ छोड़ दिया। बुखार ने उन्हें बिस्तर पर गिरा दिया और नौसेना में शामिल होने का सपना अधूरा रह गया। यही वह मोड़ था जहां मंज़िल ने रास्ता बदला। बीमारी खत्म हुई, पर मन खाली पड़ा रहा। मुंबई शहर बड़ा था, पर सपनों से भी बड़ा उसका भ्रमर।
फिर एक दिन दोस्तों के साथ घूमते-घामते सागर स्टूडियो पहुंच गए। निर्देशक कालीप्रसाद घोष शूटिंग कर रहे थे। मोतीलाल की चाल, चेहरा, संवाद करने का सलीका—सब कुछ अलग था। कैमरा नहीं, पर जिंदगी ने ऑडिशन ले लिया।
और 24 साल की उम्र में बिना प्लानिंग के पहला ब्रेक मिला — फिल्म ‘शहर का जादू’ (1934)। पहली ही फिल्म में हीरो। यह चमत्कार जैसा था, पर मोतीलाल की यात्रा तो यहीं शुरू हुई थी।
“वह एक्ट नहीं करते थे, जीते थे।”
यह बात आज भी फिल्म इतिहास दोहराता है।
‘अछूत’ (1940) में मोतीलाल ने जिस सहजता से समाज की पीड़ा को जिया, उसकी तारीफ महात्मा गांधी और सरदार पटेल तक ने की।
बाद में ‘देवदास’ (1955) के चुन्नी बाबू बने। शराब के नशे से टूटी हंसी, भीतर छुपा दर्द — ऐसा यथार्थ कि फिल्मफेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर उनके नाम हुआ।
50 से अधिक फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया और हर बार साबित किया — सिनेमा चिल्लाकर नहीं, महसूस करवाकर भी असर डालता है।
2013 में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उन्हें सम्मान दिया।
17 जून 1965, यह वह दिन था जब सिल्वर स्क्रीन का यह चमकता सितारा खामोश हो गया। पर हर शांत हवा में, हर पुरानी फिल्म के दृश्य में वह आज भी मौजूद हैं।
शशि कपूर – थिएटर का संस्कार, सिनेमा की दुनिया में चमकता नाम
18 मार्च 1938, कोलकाता। पृथ्वीराज कपूर के घर जन्मे शशि कपूर के हिस्से में विरासत भी थी और संघर्ष भी।
पिता चाहते थे—पहचान खुद बनाओ, परिवार की आभा के सहारे नहीं।
शशि ने मंच से शुरुआत की। चार साल की उम्र में पहली बार पर्दे के पीछे से मंच पर कदम रखा।
बाल कलाकार के रूप में ‘आग’ और ‘आवारा’ में छोटे किरदार, पर आंखों में शरारत और चेहरा कैमरा-फ्रेंडली। धीरे-धीरे थिएटर से अनुभव, संवाद की लय, शरीर की भाषा—सब साध ली।
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1961 में ‘धर्मपुत्र’ से बतौर लीड अभिनेता एंट्री। यश चोपड़ा की फिल्म ने उनकी अलग पहचान बनाई।
60 से 80 का दशक शशि कपूर के नाम रहा।
‘जब-जब फूल खिले’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘प्यार का मौसम’—रोमांस, भावनाएं और सौम्य अदाकारी, सब अपनी जगह बेमिसाल।
पर असली इतिहास तब लिखा गया जब स्क्रीन पर शशि कपूर + अमिताभ बच्चन आए।
दीवार, सुहाग, सिलसिला, कभी-कभी, नमक हलाल, त्रिशूल—दो पीढ़ियों का संगम।
शशि पर्दे पर दोस्त भी बने, भाई भी, और कई बार वह शख्स जो हीरो को दिशा देता है।
कई लोग कहते हैं — अगर अमिताभ के करियर का दूसरा नाम पूछा जाये तो उसमें शशि कपूर की छाया जरूर मिलेगी।
बाद में उन्होंने प्रोडक्शन किया — ‘जुनून’, ‘कलयुग’, ‘विजेता’, ‘उत्सव’ जैसी फिल्मों से भारतीय सिनेमा को नया सौंदर्य दिया। नुकसान हुआ, पर हौसला नहीं टूटा।
2011 — पद्म भूषण
दादा साहब फाल्के पुरस्कार
शशि कपूर आज भले इस दुनिया में नहीं हैं (4 दिसंबर 2017), पर उनकी मुस्कान कई पीढ़ियों के दिल में आज भी ताज़ा है।
देवानंद – मुस्कान जैसा जादू, स्टाइल जैसा अंदाज़
देवानंद हिंदी सिनेमा नहीं, एक एहसास हैं।
उनकी चाल, टोपी, आंखों का मिज़ाज — जैसे स्क्रीन पर कविता चल रही हो। वे सिर्फ हीरो नहीं, युवाओं के फैशन आइकन थे।
लेकिन सफलता का रास्ता आसान नहीं था।
शेखर कपूर का एक किस्सा बताता है—स्टार होना मतलब गिरकर भी खड़े रहना।
1974 की फिल्म ‘इश्क इश्क इश्क’।
देवानंद ने मेहनत, पैसा, सब झोंक दिया। शुरुआती तारीफें मिलीं, पर सिनेमाघर खाली होने लगे।
फिल्म फ्लॉप। नुकसान भारी।
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शेखर कपूर याद करते हैं —
“वो बाथरूम गए और लौटे तो चेहरे पर उसी पुरानी चमक थी। उन्होंने कहा—नई फिल्म करते हैं। जिंदगी रुकनी नहीं चाहिए।”
यही देवानंद थे।
जहां लोग गिरकर हार मानते, वह गिरकर अगला कदम सोचते।
खईके पान बनारस वाला — अमिताभ बच्चन के शब्दों में
“महीना लगा मुंह ठीक करने में, पर वो गाना आज भी अमर है।”
कौन जानता था कि यह गाना पहले बनारसी बाबू (1973) के लिए बना था और रिजेक्ट होने के बाद डॉन (1978) में शामिल हुआ।
रिजेक्शन अगर देवानंद को रोक पाता तो शायद यह सुपरहिट गीत जन्म ही नहीं लेता।
100+ फिल्मों का सफर, ‘जिद्दी’ ने पहचान दी, ‘काला पानी’, ‘गाइड’ ने अमर बना दिया।
2001 – पद्म भूषण
2002 – दादा साहेब फाल्के पुरस्कार
लाखों दिलों के आइकन का दिल 3 दिसंबर 2011 को थम गया।
लेकिन अमर खिलाड़ी अमर ही रहते हैं — वह आज भी जिंदा हैं अपनी फिल्मों में, अपने अंदाज़ में, और हर युवा की अलमारी में जो काली टोपी पहनते हुए आईने में मुस्कुराता है।
तीन कहानियां — एक संदेश
मोतीलाल ने सिखाया — अवसर अचानक आता है, पहचान उसे पहचानने में है।
शशि कपूर ने बताया — विरासत मिल जाए तो भी पहचान खुद बनानी होती है।
देवानंद ने जीवन मंत्र दिया — फ्लॉप सिर्फ फिल्म होती है, इंसान नहीं।
तीन सितारे, तीन काल, पर रोशनी एक —
भारतीय सिनेमा भावनाओं की धरोहर है, जहां सपनों की कोई उम्र नहीं।
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