सदियों से, हमारे मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियाँ और चित्र हमें हमारे ईश्वरीय आदर्शों से मिलाते रहे हैं। लेकिन अगर आप पुराने और नए चित्रणों की तुलना करें, तो एक सवाल मन में उठना स्वाभाविक है: हमारे देवताओं का शरीर आखिर इतना बदल क्यों गया?
आजकल बाजार में बिकने वाले कैलेंडर और पोस्टर पर राम, शिव या हनुमान को देखिए—उनमें एक बॉडी-बिल्डर वाला कसा हुआ, गठीला शरीर दिखता है, जिसके सिक्स-पैक एब्स चमक रहे होते हैं। आलोचक इसे मज़ाक में “भारतीय देवताओं पर डीसी-मार्वल का प्रभाव” कहते हैं। परम्परागत भारतीय कला में, ऐसी मांसपेशियों की नुकीली परिभाषा (Muscular detail) मिलना लगभग दुर्लभ था।
पेट का महत्व: समृद्धि और सहजता
पुराने चित्रणों में, विशेषकर कुबेर और गणेश जैसे देवताओं को अक्सर एक बड़ा पेट या तोंद के साथ दिखाया गया है। यह सिर्फ एक शारीरिक विशेषता नहीं थी, बल्कि एक गहरा प्रतीकवाद था।
प्रसिद्ध पौराणिक कथाकार देवदत्त पट्टनायक के अनुसार, प्राचीन भारत में, मोटापा या भरा हुआ पेट समृद्धि और भोजन की प्रचुरता का प्रतीक था। जहाँ पतलापन गरीबी और अभाव से जुड़ा था, वहीं एक भरा हुआ पेट यह दर्शाता था कि व्यक्ति श्रम (जो पतले शरीर से जुड़ा था) से दूर है और संपन्न है। यही कारण था कि यक्ष (जैसे कुबेर) और गणेश जैसे देवता, जो धन और सौभाग्य के स्वामी हैं, उन्हें बड़े उदर के साथ चित्रित किया गया।
कुछ क्षेत्रीय परम्पराओं में भी इसका प्रमाण मिलता है। जैसे बंगाल में, शिव को दुर्गा माँ के दामाद के रूप में देखा जाता है, और कुछ रचनाओं में उन्हें प्रेम से “तोंद वाले” के रूप में वर्णित किया गया है। यहाँ तक कि हड़प्पा सभ्यता की कुछ पुरानी मूर्तियों में भी एक भरा हुआ पेट दिखाई देता है।
शरीर एक माध्यम, सौंदर्य का आदर्श नहीं
एक और महत्वपूर्ण दृष्टिकोण भारतीय दर्शन से जुड़ा है। हिंदू आध्यात्मिक परंपरा में, भौतिक शरीर को आत्मा का एक अस्थायी ‘बर्तन’ माना गया है। अंतिम लक्ष्य इस नश्वर शरीर से मुक्त होकर मोक्ष या आत्मिक ज्ञान प्राप्त करना है।
इस उच्चतर आध्यात्मिक लक्ष्य के सामने, शरीर कैसा दिखता है—उसमें मांसपेशियां हैं या नहीं—यह अत्यधिक महत्वहीन हो जाता है। इसलिए, भारतीय मूर्तिकला का ध्यान यूनानी या रोमन कला की तरह शारीरिक सौंदर्य और मांसपेशियों की सटीकता पर केंद्रित नहीं रहा।
इसके बजाय, भारतीय कला ने अलंकरणों, आभूषणों और बहते हुए वस्त्रों की जटिल नक्काशी पर अधिक ज़ोर दिया, जो दिव्यता, राजसीपन और आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाते थे।
यूनानी प्रभाव और आधुनिक सौंदर्य बोध
फिर यह बदलाव आया कहाँ से? देवदत्त पट्टनायक बताते हैं कि आधुनिक पुरुष सौंदर्य के विचारों की जड़ें ग्रीक मूर्तिकला में हैं।
यूनानी/रोमन कला में, नायकों को उनकी शारीरिक क्षमता, सुडौल मांसपेशियों और परफेक्ट एब्स के साथ दिखाया गया, जो कलात्मक सटीकता का प्रदर्शन था।
मीडिया, सिनेमा और पश्चिमी प्रभाव के माध्यम से ये आदर्श भारत में फैले।
आज के बॉलीवुड नायक इन यूनानी नायकों की शारीरिक बनावट का अनुसरण करते हैं।
इसी कारण, राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स में भगवान राम या शिव के जो कोमल और नाज़ुक (soft delicate) चित्रण दिखते थे, उनकी जगह अब ऐसे पोस्टर ले रहे हैं, जिनमें देवताओं को किसी बॉडी बिल्डर जैसा शक्तिशाली दिखाया गया है।
संक्षेप में, हमारे देवताओं के ‘सिक्स-पैक’ आधुनिक सौंदर्य बोध और पश्चिमी कलात्मक आदर्शों का प्रभाव हैं, जो हमारे सदियों पुराने समृद्धि के प्रतीकवाद और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से दूर हैं। यह बदलाव इस बात का प्रमाण है कि धर्म और संस्कृति समय के साथ अपने बाहरी चित्रणों को कैसे बदलती रहती है।
प्रमुख आसन (मुद्राएँ) और उनका महत्व
1. समभंगा (Sambhanga)मुद्रा: यह सीधी, अटल मुद्रा है, जिसमें शरीर बिल्कुल सीधा और संतुलित होता है, जैसे दोनों पैरों पर समान भार हो।अर्थ: यह स्थिरता, अविचल एकाग्रता और पूर्ण संतुलन का प्रतीक है।उदाहरण: विष्णु (जिन्हें सृष्टि का पालक माना जाता है) की खड़ी मुद्राएँ या कुछ ध्यानस्थ मूर्तियाँ।
2. अभंग (Abhanga)मुद्रा: “अभंग” का अर्थ है हल्का झुकाव। इसमें शरीर एक तरफ हल्का सा झुका होता है, आमतौर पर कूल्हे के पास से। यह एक सहज, आरामदायक खड़ी मुद्रा होती है।अर्थ: यह लचीलापन, स्वाभाविक सौंदर्य और जीवंतता को दर्शाता है। यह मुद्रा दिखाती है कि देवता पृथ्वी पर सहज रूप से विद्यमान हैं।उदाहरण: अक्सर कृष्ण की बंसी बजाती हुई मुद्राएँ इसी श्रेणी में आती हैं।
3. त्रिभंग (Tribhanga)मुद्रा: यह सबसे प्रसिद्ध और गतिशील मुद्राओं में से एक है। इसमें शरीर तीन बिंदुओं पर झुकता है (सिर, धड़/पेट, और कमर/पैर), जिससे शरीर S-आकार का एक सुंदर वक्र बनाता है।अर्थ: यह मुद्रा दैवीय लीला (Divine Play), चंचलता, नृत्य और सौंदर्य की पराकाष्ठा को दर्शाती है। यह संसार की गति और लय का प्रतीक है।उदाहरण: कृष्ण, पार्वती (नृत्यरत), और कई देवियाँ इसी मुद्रा में दिखाई जाती हैं।
4. आसीन या पद्मासन (Sitting or Padmasana)मुद्रा: यह ध्यान की मुद्रा है, जिसमें दोनों पैर क्रॉस करके जांघों पर रखे होते हैं (कमल की मुद्रा)। रीढ़ सीधी होती है।अर्थ: यह मुद्रा स्थिरता, गहन ध्यान, आत्मज्ञान और योगिक शक्ति का प्रतीक है। यह इंगित करता है कि देवता सत्य की खोज में लीन हैं।उदाहरण: बुद्ध, आदि शंकराचार्य, और शिव (योगी के रूप में)।
5. वीरासन (Virasana)मुद्रा: वीरता या नायकों की मुद्रा। इसमें एक पैर जमीन पर टिका होता है जबकि दूसरा पैर ऊपर उठा हुआ या विशिष्ट रूप से मुड़ा हुआ होता है, जो अक्सर घुटने के बल खड़ा होता है।अर्थ: यह तैयारी, शक्ति, युद्ध की तत्परता और निडरता को दर्शाती है।उदाहरण: राम या हनुमान को युद्ध या किसी विशेष कार्य के लिए तैयार होते हुए दिखाना।

6. ललितासन (Lalitasana)मुद्रा: इसे ‘रॉयल ईज़’ (Royal Ease) की मुद्रा भी कहते हैं। इसमें देवता एक ऊँचे आसन पर बैठे होते हैं, एक पैर लटका हुआ होता है (जो सांसारिक जुड़ाव को दर्शाता है) और दूसरा पैर ऊपर मुड़ा हुआ होता है (जो ध्यान या आराम को दर्शाता है)।अर्थ: यह आरामदायक प्रभुत्व, राजसी शक्ति और सहज कृपा को दर्शाती है। यह बताती है कि देवता अपनी शक्तियों का उपयोग सहजता और आनंद के साथ करते हैं।उदाहरण: अधिकतर देवियाँ (जैसे लक्ष्मी), गणेश और बोधिसत्व।
हाथों की मुद्राएँ (हस्त मुद्रा) इन प्रमुख आसन के अलावा, देवताओं के हाथों की मुद्राएँ भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं:
हस्त मुद्रा (Hand Gesture)अर्थ और महत्वअभय मुद्रानिडरता और सुरक्षा का आश्वासन। हथेली आगे की ओर, उंगलियाँ ऊपर की ओर उठी हुई।
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वरद मुद्रावरदान देने और करुणा का प्रतीक। हथेली नीचे की ओर, उंगलियाँ नीचे की ओर इशारा करती हुई।
ज्ञान/ध्यान मुद्राज्ञान, एकाग्रता और आध्यात्मिक सत्य का प्रतीक। अंगूठे और तर्जनी का सिरा मिला हुआ।
दान मुद्राभेंट स्वीकारना या दान देना। हथेली खुली हुई, अक्सर किसी बर्तन को पकड़े हुए।
महादेव की गहन मुद्राएँ: नटराज से समाधि तक
भगवान शिव, जिन्हें ‘देवों के देव महादेव’ कहा जाता है, परिवर्तन, सृजन और संहार के देवता हैं। उनकी मुद्राएँ केवल आसन नहीं हैं, बल्कि गहन दार्शनिक सिद्धांतों और ब्रह्मांडीय क्रियाओं का दृश्य प्रतिनिधित्व हैं। शिव की मुद्राओं की गहराई को दो प्रमुख श्रेणियों में समझा जा सकता है: योगिक समाधि की मुद्रा और ब्रह्मांडीय नृत्य की मुद्रा।
1. समाधि की मुद्रा (योगीश्वर स्वरूप)
शिव को आदि योगी (प्रथम योगी) और योगीश्वर कहा जाता है, इसलिए उनकी यह मुद्रा आंतरिक शांति, वैराग्य और सर्वोच्च चेतना का प्रतीक है।
आसन (बैठने की स्थिति) पद्मासन या सिद्धासन में आँखें बंद (या आधी खुली)। अक्सर बाघंबर (बाघ की खाल) पर बैठे हुए। | यह पूर्ण ध्यान (समाधि) की अवस्था है। शिव सृष्टि से विरक्त होकर अपने स्व-स्वरूप में लीन हैं। आँखें बंद होना बाहरी संसार से पूर्ण अलगाव और आंतरिक सत्य पर केंद्रित होने का प्रतीक है। |
हाथों की स्थिति हाथ आमतौर पर ध्यान मुद्रा (Dhyana Mudra) में होते हैं, जहाँ दोनों हथेलियाँ ऊपर की ओर गोद में रखी होती हैं, एक के ऊपर एक, और अंगूठे मिले हुए होते हैं। | यह मुद्रा द्वैत के पार जाना (आत्मा और परमात्मा के मिलन की ओर बढ़ना) और अखंड एकाग्रता को दर्शाती है। यह परम शांति और समस्त ज्ञान को धारण करने की क्षमता का प्रतीक है। |
शरीर पर भस्म (राख), जटाओं से बहती गंगा, गले में सर्प
भस्म क्षणिकता और वैराग्य का प्रतीक है (सब कुछ अंततः राख है)। सर्प (वासुकी) काल (समय) और कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है, जिसे शिव ने नियंत्रित किया है।

समाधि की मुद्रा में शिव सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले) हैं और किसी का ध्यान नहीं करते, बल्कि स्वयं में प्रतिष्ठित हैं। वह शांत और स्थिर ऊर्जा के स्रोत हैं, जहाँ सृष्टि का संतुलन टिका हुआ है।
2. नटराज की मुद्रा (आनंद तांडव)
शिव का नटराज (नृत्य का राजा) स्वरूप उनकी गतिशील ऊर्जा और ब्रह्मांडीय कार्य को दर्शाता है। यह मुद्रा सृष्टि के पाँच प्रमुख कार्यों (पंचकृत्य) का प्रतिनिधित्व करती है।
नटराज मुद्रा का तत्व, मुद्रा का स्वरूप, दार्शनिक महत्व (पंचकृत्य)
पहला दाहिना हाथ ऊपर उठा हुआ, हाथ में डमरू। | सृष्टि (सृजन): डमरू की ध्वनि ब्रह्मांडीय लय और ‘बिग बैंग’ जैसी प्रथम ध्वनि (नाद) का प्रतीक है, जिससे सृष्टि का आरंभ हुआ। |
दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में (हथेली बाहर की ओर उठी हुई)। | स्थिति (संरक्षण): यह भयहीनता और आशीर्वाद का प्रतीक है। शिव अपने भक्तों को हर बुराई से बचाने का आश्वासन देते हैं। |
पहला बायाँ हाथ | हथेली पर अग्नि की ज्वाला। | संहार (विनाश): अग्नि विनाश का प्रतीक है। यह इंगित करता है कि शिव ही वह शक्ति हैं जो सब कुछ नष्ट करके पुनर्जन्म का मार्ग प्रशस्त करते हैं। |
दूसरा बायाँ हाथ, हाथी की सूंड जैसी मुद्रा (गजहस्त) में, जो उठे हुए पैर की ओर इंगित करता है। मोक्ष (मुक्ति): यह हाथ उस मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है जो शिव के चरणों में मिलता है।
उठा हुआ बायाँ पैर, घुटने से मुड़ा हुआ, नृत्य की मुद्रा में। अनुग्रह (कृपा): यह उठा हुआ पैर माया के बंधन से मुक्ति और शिव की कृपा द्वारा प्राप्त मोक्ष का प्रतीक है।
कुचला हुआ दानव, शिव के पैरों के नीचे दबा हुआ अपस्मार (बौना)। अज्ञान का नाश: अपस्मार अज्ञानता और अहंकार का प्रतीक है, जिसे शिव अपने नृत्य (ब्रह्मांडीय ज्ञान) से कुचलते हैं।
परिवर्ती अग्नि-चक्र, मूर्ति के चारों ओर उठती हुई अग्नि की ज्वालाएँ। ब्रह्मांड: यह संसार का चक्र और अनंत ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीक है।
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गहनता: नटराज मुद्रा बताती है कि जीवन एक अनंत नृत्य है जहाँ जन्म, जीवन और मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है। शिव इस पूरे चक्र के स्वामी (राजा) हैं।
शिव की ये मुद्राएँ (आसन और हस्त मुद्राएँ) केवल भौतिक चित्रण नहीं हैं, बल्कि हिंदू दर्शन, योग और कॉस्मोलॉजी के सबसे शक्तिशाली और प्रमाणित दृश्य सारांश हैं।
लेखक रामकृष्ण वाजपेयी








