अद्भुत है सनातन धर्म, और अद्भुत हैं उसके उत्सव और पर्व। मगर, क्या हमने इन पर्वों का अर्थ बचाकर रखा है? आज के दौर में जब हमने अपने उत्सवों की जड़ों को काट दिया है, तब सिर्फ ‘हैप्पी दिवाली’ और ‘हैप्पी होली’ शेष बचा है। त्योहारों का मर्म न जाने कहाँ विलीन हो चुका है। हम भूल चुके हैं कि ये पर्व किसके थे और क्यों मनाए जाते थे। बच्चों को इतिहास और भूगोल सब पढ़ाया जाता है, लेकिन संस्कृति भी जानकारी का विषय है, इस पर कोई विचार नहीं करता। परिणाम यह है कि अब तो बस लकीर पीटी जा रही है कि जाड़े से पहले दीपावली होती है और गर्मियों से पहले होली। गाँव की संस्कृति और गाँव के लोगों से दूरी बनाने वाले नव-निर्मित सभ्य समाज के लोग यह भूल जाते हैं कि हमारे सभी पर्व-त्योहार गाँव की माटी की ही देन हैं। चाहे तीज हो, करवाचौथ हो, हरछठ हो, अहोई अष्टमी हो, भाई दूज हो या गोवर्धन पूजा—इन पर्वों के साथ कहानियाँ जोड़कर इन्हें एक पवित्र परंपरा का रूप दिया गया है।
किसान और रोटी का ‘डॉलर रेट’: एक कड़वी सच्चाई
हमारा देश कृषि प्रधान है, यह सबने पढ़ा है, पर उस देश में कृषि कर्म में डूबा किसान कहाँ है? हर आदमी चाहता है कि गाँव शहर बन जाए, तो फिर खेत कहाँ बचेंगे? जब खेत नहीं होंगे तो अन्न कहाँ उपजेगा? फिर तो रोटी भी डॉलर के रेट पर मिलेगी। यह कैसी विडंबना है कि सूटेड-बूटेड बिज़नेसमैन सम्माननीय है, लेकिन मैला-कुचैला धोती-कुर्ता पहने किसान समाज का सबसे निचला व्यक्ति है? बड़े लोगों के समारोह में पहुंचने पर उसे तिरस्कार मिलता है। किसान अन्न उपजाए, लेकिन किसान सम्मान न पाए—यह विरोधाभास आखिर कब तक चलेगा?
यह बात कहनी इसलिए ज़रूरी थी, क्योंकि हमारे देश में होली और दीपावली पर्व वैदिक काल से ही मनाए जाते रहे हैं, और इनका सीधा संबंध कृषि से है।
दीपावली का वैदिक रहस्य: ‘शारदीय नवसस्येष्टि’
पतंजलि योग संदेश में प्रकाशित साध्वी देवश्रुति के एक लेख के अनुसार: सृष्टि के आदिकाल से चली आ रही वैदिक संस्कृति में, शरद ऋतु के पर्वों का प्रारंभ शारदीय नवरात्र से होता है और समाप्ति देवोत्थान एकादशी पर। इसी श्रृंखला में सृष्टि के आदिकाल से ही ‘शारदीय नवसस्येष्टि’ के रूप में मनाए जाने वाला पर्व है दीपोत्सव (दीपावली)।
‘शारदीय नवसस्येष्टि’ एक वृहद् यज्ञ है, जिसका अर्थ इस प्रकार है:
- शारदीय: शरद ऋतु में होने वाला
- नवसस्यं: नया धान या नई फसल (नवीनं च तत् सस्यं)
- इष्टिः: यज्ञ (नई फसल से यज्ञ)
वैदिक संस्कृति के अनुसार, शरद ऋतु की नई फसल को सबसे पहले यज्ञ में अर्पित किया जाता है, उसके बाद ही उसका भोग किया जाता है। पके हुए नए धान की आहूतियों के द्वारा किया जाने वाला यह यज्ञ ही ‘शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ’ कहलाता है। हमारे सभी पारंपरिक त्योहार—चाहे वह दीपावली हो, फाल्गुनी नवसस्येष्टि (होली) हो या श्रावणी उपाकर्म (रक्षाबंधन)—सभी पर्वों पर यज्ञ का विधान है, जिसका सीधा संबंध प्रकृति से है।

https://tesariaankh.com/akshardham-vishwashanti-mahayagna-delhi-dussehra-2025/
स्वार्थ छोड़कर परमार्थ की ओर
वैदिक संस्कृति का मूल योग और यज्ञ है। गीता (३.१३) में यज्ञ की महिमा इस तरह बताई गई है:
अर्थात्: यजन (यज्ञ) करने के उपरांत जो शेष बचे उसका भोग करने वाले सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं, और जो स्वार्थवश केवल अपने लिए भोग करते हैं, वे मात्र पाप का भोग करते हैं।
‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्र्गमय…’ के संदेश को जीवंत करता दीपावली का यह पर्व हमें अनंत ऊर्जा देता है। यह हमें अपने अंदर के अंधकार को समाप्त कर सत्य मार्ग पर प्रतिष्ठित होने का उत्साह प्रदान करता है। यज्ञ के माध्यम से ही त्याग, परहित और दान देने की भावना हमारे भीतर पोषित होती है, जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का अमूल्य संदेश है।
कालक्रम में जुड़ी अन्य घटनाएँ
वैदिक काल से चले आ रहे इस वृहद् यज्ञ के पर्व से कालक्रम में कई घटनाएँ भी जुड़ती गईं, जिससे इसका ऐतिहासिक महत्त्व और बढ़ गया:
- भगवान राम का अयोध्या आगमन।
- महर्षि दयानन्द सरस्वती व भगवान महावीर का निर्वाण।
- सिक्ख धर्म में इसे ‘बन्दी छोड़ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
आरोग्य का प्रतीक: धनतेरस
दीपावली कई दिनों तक चलने वाला पर्व है, जिसकी शुरुआत धनतेरस (धन्वन्तरि त्रयोदशी) से होती है। वैदिक संस्कृति के अनुसार, धनतेरस आरोग्य (स्वास्थ्य) का प्रतीक है। इस दिन अनेक औषधियों से यज्ञ करके भगवान धन्वन्तरि की अर्चना की जानी चाहिए।
परन्तु विडंबना देखिए: वर्तमान समय में लोग आभूषण, बर्तन आदि खरीदने मात्र को धनतेरस समझते हैं। उनका मानना है कि खरीदारी से समृद्धि आती है। इसी अंधविश्वास का लाभ उठाकर कुछ व्यापारी वस्तुओं को दोगुने-चौगुने दामों पर बेचते हैं।
विनाशकारी विकास नहीं, अहिंसा मूलक पथ चाहिए
समय के साथ इन पवित्र पर्वों में विकृतियाँ आती गईं। समृद्धि, पवित्रता और सत्य की विजय का संदेश देने वाला यह पवित्र दिन आज प्रदूषण, अंधविश्वास और नशाखोरी की भेंट चढ़ाया जा रहा है।
हमारी वैदिक संस्कृति तो हमें आदेश देती है: ‘उद्यानं ते पुरुष नावयानम्’ – अर्थात्, हे मनुष्यों! तुम ऊपर उठो, तुम्हारा जन्म ऊपर उठने के लिए हुआ है, नीचे गिरने के लिए नहीं।
https://x.com/airnews_gkp/status/1978755816606814516
अतः, समग्रता से विचार करें। हमें केवल ‘विनाशकारी विकास’ के पथ को छोड़कर, अहिंसामूलक विकास के पथ पर अग्रसर होना होगा, तभी हम अपने पर्वों के वास्तविक मर्म और गरिमा को बचा पाएंगे।








