झारखंड के धनबाद जिले में स्थित केंदुआडीह क्षेत्र इन दिनों भय और अनिश्चितता के साए में है। बंद पड़ी कोयला खदान से पिछले पांच दिनों से जहरीली गैस का रिसाव जारी है, और स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि करीब 25 हजार लोगों की आबादी मौत के साये में जीने को मजबूर है। जिस भूमि ने कभी हजारों परिवारों को रोज़गार, घर और पेट भरने का साधन दिया, वही अब उनके अस्तित्व पर संकट खड़ा कर रही है। धीमी गति से बहकर निकल रही यह दमघोंटू गैस, कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों के रूप में सामने आ रही है, जिसके असर से दो महिलाओं—प्रियंका देवी और ललिता देवी—की जान जा चुकी है, जबकि लगभग 20 लोग अस्पताल पहुंचाए गए हैं। कई लोगों को आंखों में जलन, सिर दर्द, सांस लेने में तकलीफ और बेहोशी जैसी समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं।
गैस का रिसाव थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजपूत बस्ती, मस्जिद मोहल्ला, नया धौड़ा, ऑफिसर कॉलोनी और पांच नंबर बस्ती जैसे इलाके पूरी तरह प्रभावित हैं। मुख्य सड़क तक बदबूदार और तीखी गंध फैल चुकी है। घरों में रहना मुश्किल हो रहा है, कई लोग मास्क पहनकर बाहर निकल रहे हैं, दैनिक जीवन लगभग थम-सा गया है। दुकानें बंद, गलियां वीरान, हवा में जहर और जमीन के भीतर गर्मी—यह सब मिलकर इस क्षेत्र को किसी आपदा क्षेत्र जैसा बना रहा है। कई जगह जमीन धंसने का खतरा भी मंडरा रहा है।
प्रशासन की चुनौती—लोगों को बचाया जाए या घर बचाने दिए जाएं?
स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोयला मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव सनोज कुमार झा ने निरीक्षण के बाद राजपूत बस्ती क्षेत्र को अत्यंत खतरनाक घोषित कर दिया है। उनका स्पष्ट बयान है—“पहले लोग अपनी जान बचाएं। रोजगार और मुआवजे की दिशा में पहल जारी है।”
लेकिन प्रशासन और बीसीसीएल प्रबंधन के लिए यह सिर्फ एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि मानवीय चुनौती भी है। प्रभावित लोग अपनी जमीन, अपनी मेहनत से बनाए घर और जीवन की पूंजी छोड़कर जाना नहीं चाहते। विश्वास की कमी उन्हें प्रशासन से दूर रख रही है। पुनर्वास शुरू हुआ, बसें आईं, लोगों को बेलगड़िया और करमाटांड़ स्थित शिविरों तक भेजने की घोषणा हुई, लेकिन स्थानीय लोगों ने बसों को रोक दिया। उनका कहना था कि जब तक मुआवजा और रोजगार सुनिश्चित नहीं होगा, वे घर खाली नहीं करेंगे। समझाइश और देर रात तक मंथन के बाद कुछ परिवारों ने मन बदला और प्रशासन के साथ जाने को तैयार हुए।
फिलहाल केंदुआडीह मध्य विद्यालय और दुर्गा मंदिर मैदान में 200-200 लोगों की क्षमता वाले अस्थायी शिविर बनाए गए हैं। कुछ परिवारों को बेलगड़िया टाउनशिप में भी स्थानांतरित किया गया है, जहां विस्थापितों के लिए पहले से आवास बनाए गए थे। हालांकि, यह संख्या कुल प्रभावित आबादी का छोटा हिस्सा है।
एक पुरानी आग, जो कभी बुझी ही नहीं
धनबाद के कई क्षेत्र दशकों से भूमिगत आग और गैस रिसाव की चपेट में हैं। केंदुआडीह भी इन्हीं इलाकों में से एक है, जहां 2010-11 में बीसीसीएल ने 302 घरों को चिन्हित कर विस्थापन की प्रक्रिया शुरू की थी। मगर रोजगार और पुनर्वास पैकेज स्पष्ट न होने के कारण स्थानीय लोगों ने विस्थापन से दूरी बना ली। समय बीतता गया, घर बढ़े और अब उनकी संख्या 500 से ऊपर पहुंच गई है।
कोयला खदानें भारत की ऊर्जा रीढ़ हैं, लेकिन इन्हीं खदानों से निकलती अग्नि और गैस स्थानीय समुदायों के लिए अभिशाप बनती जा रही है। भूमिगत आग वर्षों से सुलग रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बंद पड़ी खदानों में भी गैस जमा होती रहती है और समय के साथ दबाव बढ़ने पर सतह पर रिसाव हो सकता है। केंदुआडीह में यही हुआ।
बीसीसीएल के महाप्रबंधक जीसी साहा के शब्द साफ हैं—“स्थायी समाधान तभी संभव है जब पूरा इलाका खाली हो।” लेकिन यह बात जितनी सरल सुनाई देती है, जमीन पर उतनी ही जटिल है। हजारों लोग पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं। उनका रोजगार आसपास की खदानों, दुकानों, खान-पान स्टालों, रेहड़ियों, परिवहन और मजदूरी से जुड़ा है। यह सिर्फ घर छोड़ने का प्रश्न नहीं—यह पूरी जीवनशैली बदलने की बात है।
औद्योगिकीकरण की चमक के पीछे छिपा अंधेरा
भारत में औद्योगिक विकास को अक्सर प्रगति का पैमाना माना जाता है, लेकिन केंदुआडीह जैसे क्षेत्र हमें यह भी बताते हैं कि विकास की चमक के पीछे छिपे अंधेरों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
कोयला खदानों ने रोजगार दिया, अर्थव्यवस्था बनाई और शहरों को रोशन किया, परन्तु उनके आसपास पनपते जीवन अक्सर जोखिम, बीमारी और अनिश्चितता से भरे रहे।
जहरीली गैसें केवल शरीर ही नहीं, जीवन और भविष्य को भी दमघोंट देती हैं।
जिन क्षेत्रों में भूमि नीचे जल रही हो, जहां धरातल गर्म हो, जहां सांस लेना भी खतरा हो—वहां विकास और जीवन का रास्ता विपरीत दिशाओं में चलते दिखाई देते हैं।
औद्योगिकीकरण का मॉडल यदि स्थानीय मानव जीवन की सुरक्षा और स्थायित्व को प्राथमिकता नहीं देता, तो परिणाम केंदुआडीह जैसे ही होते हैं—जहां विकास तो हुआ, लेकिन उसकी कीमत लोगों को अपने घर, जमीन और शायद जीवन से चुकानी पड़ रही है।
रोजगार, मुआवजा और पुनर्वास—समाधान की तीन अनिवार्य शर्तें
लोगों का भय सिर्फ गैस का नहीं, भविष्य का भी है। विस्थापन के बाद जीवन कैसे चलेगा? बच्चों की पढ़ाई? रोज़गार? जीविका? क्या नए स्थान पर उन्हें काम मिलेगा? क्या मुआवजा पर्याप्त होगा? ये सवाल हर घर में गूंज रहे हैं।
सरकार और बीसीसीएल प्रबंधन को ऐसे समाधान की दिशा में काम करना होगा जिसमें—
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स्थायी पुनर्वास और सुरक्षित आवास की गारंटी मिले
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प्रभावित परिवारों को रोजगार या वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध हो
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स्वास्थ्य निगरानी व आपात medical सुविधाएं उपलब्ध रहें
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राज्य व केंद्र सरकार संयुक्त दीर्घकालिक योजना बनाएं
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स्थानीय समुदाय को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए
सिर्फ इलाके को खाली कराकर समस्या खत्म नहीं होगी। बंद खदानों का वैज्ञानिक प्रबंधन, गैस मॉनिटरिंग सिस्टम, और आग नियंत्रण उपायों की सख्त व्यवस्था अनिवार्य है।
अब सबसे बड़ा सवाल—कब रुकेगी यह जहर वाली हवा?
केंदुआडीह को बचाने के लिए समय तेजी से निकल रहा है। प्रशासन, बीसीसीएल, कोयला मंत्रालय और विशेषज्ञ लगातार समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन खतरा टला नहीं है। प्रभावित इलाकों में सिक्योरिटी बल तैनात हैं और घर खाली करने की अपील जारी है।
स्थानीय लोग दुविधा में हैं—घर छोड़ें तो भविष्य अंधकारमय, घर में रहें तो जान जोखिम में।
विकास और जीवन की लड़ाई के बीच केंदुआडीह आज उस मोड़ पर खड़ा है जहां हर निर्णय इतिहास लिखेगा।
https://x.com/Mirnal52/status/1997357936713375813?s=20
इस गैस रिसाव की घटना हमें यह भी याद दिलाती है कि उद्योगों द्वारा संचालित क्षेत्रों में सुरक्षा व्यवस्था, पर्यावरणीय निगरानी और जन कल्याण किसी विकल्प की तरह नहीं, बल्कि अनिवार्य ढांचे की तरह लागू होने चाहिए। नहीं तो विकास की आग अंततः उन लोगों को ही जलाती है जिन्होंने इसे ईंधन दिया था।
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जब तक समाधान नहीं निकलता, केंदुआडीह की हवा में सिर्फ गैस नहीं—चिंता, भय और उम्मीद भी तैर रही है।
वक्त की मांग है कि सरकार और कंपनियां ज़मीनी हकीकत के साथ बैठकर लोगों के लिए ऐसा विकल्प तैयार करें, जिसमें विकास भी बचे और जीवन भी।








