Asur Janjati: जब देश भर में विजयादशमी (दशहरा) का पर्व हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है, तब झारखंड और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में रहने वाली असुर जनजाति के लिए यह समय शोक का होता है। यह जनजाति, जो स्वयं को महिषासुर का वंशज मानती है, अपने आराध्य पितृपुरुष की छलपूर्वक हत्या के कारण नवरात्र से लेकर दशहरे की समाप्ति तक किसी भी प्रकार का शुभ कार्य नहीं करती और शोक में डूबी रहती है।
महिषासुर: आराध्य ‘हुड़ुर दुर्गा’
असुर जनजाति के लोग महिषासुर को केवल अपना पूर्वज नहीं, बल्कि अपना आराध्य राजा मानते हैं। उनकी मान्यता है कि महिषासुर धरती के न्यायप्रिय राजा थे, जिनकी हत्या छल से की गई। यह जनजाति महिषासुर को ‘हुड़ुर दुर्गा’ (अर्थात्, महिषासुर-रूपी दुर्गा) के रूप में पूजती है।
- शोक की परंपरा: नवरात्र के नौ दिन और दशहरे की समाप्ति तक इस समुदाय में शोक मनाया जाता है। पारंपरिक रूप से, इस दौरान ये लोग घरों से बाहर निकलने से भी परहेज करते थे।
- पूजन पद्धति:
- पश्चिम बंगाल (पुरुलिया, मिदनापुर): केंदाशोल जैसे गांवों में, असुर जनजाति के लोग सप्तमी की शाम से दशमी तक महिषासुर की मूर्ति ‘हुदुड़ दुर्गा‘ के नाम से स्थापित कर उनकी पूजा करते हैं।
- झारखंड (गुमला, पलामू, लातेहार): यहाँ असुर समुदाय मूर्ति पूजा नहीं करता, लेकिन दीपावली की रात मिट्टी का एक छोटा पिंड बनाकर महिषासुर सहित अपने सभी पूर्वजों को याद करते हैं।

छल से हुई हत्या की मान्यता
असुर समाज में यह दृढ़ मान्यता है कि महिषासुर एक योद्धा थे जो महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर देवी दुर्गा को आगे किया गया और छलपूर्वक उनका संहार कर दिया गया।
- शक्ति स्थल: गुमला जिले के डुमरी प्रखंड में स्थित टांगीनाथ धाम को यह जनजाति महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है।
- भैंसे की पूजा: गुमला और लातेहार जिलों में आज भी प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की पूजा करने की अनूठी परंपरा जीवित है।
Asur Janjati की प्राचीन विरासत
मानव विज्ञानियों ने असुर जनजाति को प्रोटो-ऑस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत रखा है। प्राचीन ग्रंथों में भी असुर शब्द का उल्लेख मिलता है:
- ऐतिहासिक उल्लेख: ऋग्वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् और महाभारत जैसे ग्रंथों में ‘असुर’ शब्द का वर्णन है। मुण्डा जनजाति की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में भी इनका उल्लेख है।
- शक्तिशाली समुदाय: इतिहासकार बनर्जी और शास्त्री ने लिखा है कि ये पूर्व-वैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे।
- सिंधु सभ्यता से संबंध: प्रसिद्ध एथनोलॉजिस्ट एससी राय ने लगभग 80 वर्ष पहले झारखंड में सौ स्थानों पर असुरों के किले और कब्रों की खोज की थी। उन्होंने असुरों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से संबंधित बताया और उन्हें ताम्र, कांस्य एवं लौह युग का सहयात्री माना है।
- वर्तमान कौशल: झारखंड में रहने वाली असुर जनजाति आज भी मिट्टी से परंपरागत तरीके से लोहे के औजार बनाकर अपनी प्राचीन लौह कारीगरी की विरासत को जीवित रखे हुए है।
ये मानते है रावण को अपना पूर्वज
महिषासुर को पूजने के साथ ही, देश के अन्य हिस्सों में भी विपरीत परंपराएँ दिखाई देती हैं। संताल परगना प्रमंडल (गोड्डा, राजमहल, दुमका) के कई इलाकों में विभिन्न जनजाति समुदाय के लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं। इन क्षेत्रों में न तो कभी रावण वध की परंपरा रही है और न ही वे नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं। यह दर्शाता है कि भारत में पौराणिक आख्यानों को लेकर समुदायों में विविधतापूर्ण और प्राचीन मान्यताएँ सदियों से विद्यमान रही हैं।








