सीटों के बंटवारे का यह ‘ट्विन फार्मूला’ सीधे तौर पर यह दिखाता है कि गठबंधन में अब JDU “बड़े भाई” की भूमिका में नहीं रही। 2020 के चुनाव में भी, हालांकि JDU ने BJP से ज़्यादा सीटों (122 के मुकाबले 121) पर चुनाव लड़ा था, लेकिन नतीजे BJP के पक्ष में रहे थे (JDU को 43 और BJP को 74 सीटें मिली थीं)। 2020 के खराब प्रदर्शन के बाद, नीतीश कुमार को अपने पारंपरिक ‘बड़े भाई’ का दर्जा छोड़ना पड़ा है। सूत्रों के अनुसार, JDU की इच्छा BJP से कम से कम एक सीट ज़्यादा लेने की थी, लेकिन BJP ने “बराबरी” पर जोर दिया। यह नीतीश कुमार के बढ़ते राजनीतिक दबाव और घटते सौदेबाजी की शक्ति को दर्शाता है। भले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया गया हो, लेकिन बराबरी की सीटों पर लड़ना उनकी पार्टी के शक्ति संतुलन में बदलाव का स्पष्ट संकेत है। अगर चुनाव के बाद JDU फिर से BJP से कम सीटें जीतती है, तो मुख्यमंत्री के रूप में भी उनका कार्यकाल अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
क्या भाजपा वर्चस्व कायम करना चाहती है?
BJP का बराबरी की सीटों पर चुनाव लड़ना, और चिराग पासवान जैसे सहयोगी को बड़ी संख्या में सीटें देना, बिहार की राजनीति में वर्चस्व की ओर बढ़ने की उसकी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। समान सीटों पर लड़ने का मतलब है कि BJP अब JDU के बराबर की भागीदार है, जिससे भविष्य में गठबंधन के फैसलों पर उसका नियंत्रण बढ़ेगा। 2020 में चिराग पासवान ने JDU को भारी नुकसान पहुँचाया था। इस बार, उन्हें NDA में सम्मानजनक सीटें देकर (29 के आसपास) BJP ने यह सुनिश्चित किया है कि JDU को घेरने की रणनीति उसके हाथ में रहे। BJP राज्य में अपने कैडर और जनाधार के विस्तार की रणनीति पर काम कर रही है। बराबरी की सीटें उसे भविष्य में, यहाँ तक कि चुनाव के बाद भी, मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर बातचीत करने में मजबूत स्थिति देती हैं। यह स्पष्ट है कि BJP अब केंद्र की तर्ज पर बिहार में भी गठबंधन के अंदर ‘बड़े भाई’ की भूमिका हासिल करना चाहती है।
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विपक्ष के लिए अवसर और लालू की वापसी की पटकथा?
सत्ताधारी गठबंधन की यह आंतरिक रस्साकशी विपक्ष, विशेषकर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के लिए एक बड़ा राजनीतिक अवसर पैदा कर सकती है। JDU और BJP के बीच सीटों को लेकर हुई लंबी बातचीत और चिराग पासवान को लेकर बनी स्थिति, यह संदेश देती है कि NDA में सब कुछ ठीक नहीं है। विपक्ष इसे “सत्ता के लिए लड़ाई” और “कमजोर नेतृत्व” के रूप में भुना सकता है। नीतीश कुमार का कमजोर दिखना उनके पारंपरिक कोर वोट बैंक, खासकर अति-पिछड़ा वर्ग (EBC) और महिलाओं में, भ्रम पैदा कर सकता है। विपक्ष इसे भुनाकर यह कह सकता है कि नीतीश अब केंद्र के दबाव में हैं और राज्य के हित प्रभावित होंगे। राजद हमेशा से “सामाजिक न्याय” और “जातीय गोलबंदी” पर केंद्रित रहा है। यदि JDU का कोर वोटर बेस (EBC और कुछ महादलित) यह महसूस करता है कि नीतीश का नेतृत्व कमजोर हुआ है, तो उसका एक हिस्सा विपक्ष की ओर जा सकता है। तेजस्वी यादव अपनी रैलियों में इस कमजोर गठबंधन के मुद्दे को उठाकर लालू प्रसाद यादव के पारंपरिक आधार (यादव+मुस्लिम) को एकजुट करने के साथ-साथ अन्य पिछड़ी जातियों में भी पैठ बनाने की कोशिश करेंगे, जो अंततः लालू की राजनीतिक वापसी की पटकथा बन सकती है।
https://tesariaankh.com/lalu-yadav-slams-nda-bihar-election-double-engine-exit/
NDA में सीटों का बंटवारा महज अंकों का खेल नहीं है, बल्कि बिहार की भावी राजनीति में शक्ति संतुलन का स्पष्ट संकेतक है। यह समझौता नीतीश कुमार के कद को आंशिक रूप से कमजोर करता है, जबकि BJP को गठबंधन पर अधिक वर्चस्व स्थापित करने की ओर ले जाता है। विपक्ष को सत्तारूढ़ गठबंधन की इस ‘कमजोरी’ को भुनाने का निश्चित रूप से एक बड़ा मौका मिला है, और यह चुनावी माहौल में एक प्रमुख मुद्दा बन सकता है।








