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Special Intensive Revision: SIR के तहत करीब एक करोड़ नाम बाहर: प्रक्रिया, सवाल और सच्चाई

Special Intensive Revision: लगभग एक करोड़ नाम गायब: SIR मतदाता पुनरीक्षण या लोकतंत्र की नई कसौटी?

देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत बुनियाद माने जाने वाले मतदाता सूची पर इन दिनों सबसे बड़ी बहस चल रही है। चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे Special Intensive Revision (SIR) अभियान के तहत अब तक चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में करीब 95 लाख मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट इलेक्टोरल रोल से हटा दिए गए हैं

आंकड़े चौंकाने वाले हैं, लेकिन उससे भी ज़्यादा चौंकाने वाला है वह सवाल, जो इन आंकड़ों के पीछे खड़ा है—
क्या यह मतदाता सूची को शुद्ध करने की प्रशासनिक कवायद है, या लोकतांत्रिक संतुलन को प्रभावित करने वाला कोई बड़ा खेल?

आंकड़ों की ज़मीनी तस्वीर

23 दिसंबर 2025 को प्रकाशित ड्राफ्ट मतदाता सूचियों के मुताबिक:

  • अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह

    • कुल मतदाता: 3.10 लाख

    • हटाए गए नाम: 64,000

  • केरल

    • कुल मतदाता: 2.78 करोड़

    • हटाए गए नाम: 24.08 लाख

  • छत्तीसगढ़

    • कुल मतदाता: 2.12 करोड़

    • हटाए गए नाम: 27.34 लाख

  • मध्य प्रदेश

    • कुल मतदाता: 5.74 करोड़

    • हटाए गए नाम: 42.74 लाख

चारों राज्यों को जोड़ दें तो यह संख्या करीब एक करोड़ के आसपास पहुंच जाती है—वह भी सिर्फ SIR के पहले चरण में।

https://x.com/ByRakeshSimha/status/2003684281336705134?s=20

चुनाव आयोग क्या कहता है?

चुनाव आयोग का तर्क साफ़ है। उसके अनुसार ये नाम:

  • मृत मतदाताओं के

  • स्थायी रूप से स्थानांतरित लोगों के

  • दोहरी एंट्री (duplicate entries)

  • या लंबे समय से सत्यापन से बाहर रहे मतदाताओं के हैं

आयोग यह भी कहता है कि यह डिलीशन फाइनल नहीं है। जिन मतदाताओं के नाम हटे हैं, वे पुनः शामिल (re-inclusion) होने के लिए आवेदन कर सकते हैं।
इन आवेदनों पर निर्णय के बाद 14 फरवरी 2026 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी।

तकनीकी तौर पर प्रक्रिया पारदर्शी दिखती है—सूचियां CEO वेबसाइट, वोटर पोर्टल और ECINET ऐप पर उपलब्ध हैं।

लेकिन सवाल फिर भी खड़े होते हैं

1️⃣ इतनी बड़ी संख्या क्यों?

लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार नहीं है जब मतदाता सूची संशोधित हुई हो, लेकिन एक साथ इतने बड़े पैमाने पर नाम हटना कई विशेषज्ञों को असहज कर रहा है।

खासतौर पर केरल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में, जहाँ हर छठा–सातवां मतदाता ड्राफ्ट सूची से गायब है।

2️⃣ क्या सामाजिक पैटर्न दिख रहा है?

देश और विदेश के चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि प्रारंभिक डेटा में कुछ पैटर्न उभरते दिख रहे हैं—

  • शहरी गरीब

  • प्रवासी मज़दूर

  • आदिवासी इलाकों के मतदाता

  • और डिजिटल एक्सेस से दूर लोग

https://tesariaankh.com/pan-aadhaar-deadline-itr-nps-december-31/

इन वर्गों के नाम अपेक्षाकृत अधिक संख्या में हटते दिख रहे हैं।
यही वह बिंदु है जहाँ SIR तकनीकी प्रक्रिया से राजनीतिक बहस बन जाता है।

3️⃣ आलोचकों की नजर में “डेमोक्रेसी अंडर स्ट्रेस”

अंतरराष्ट्रीय चुनाव निगरानी समूह और लोकतंत्र पर काम करने वाले कुछ थिंक-टैंक इसे लेकर आशंकित हैं। उनका तर्क है—

“अगर पुनः शामिल होने की प्रक्रिया जटिल, डिजिटल या समय-बद्ध हुई, तो सबसे कमजोर मतदाता ही बाहर रह जाएंगे।”

कुछ आलोचक इसे ‘silent disenfranchisement’ यानी चुपचाप मताधिकार छिनने की प्रक्रिया तक कह रहे हैं।

सरकार का गेम प्लान या सिस्टम सुधार?

यहीं से कहानी दो हिस्सों में बंट जाती है।

🔹 सरकार और आयोग का पक्ष

  • साफ-सुथरी मतदाता सूची

  • फर्जी वोटिंग पर रोक

  • चुनावी विश्वसनीयता मजबूत

🔹 विपक्ष और सिविल सोसायटी का संदेह

  • चुनाव से पहले बड़े पैमाने पर डिलीशन

  • कुछ राज्यों में असमान प्रभाव

  • पुनः शामिल होने की प्रक्रिया में संभावित बाधाएं

सच शायद इन दोनों के बीच कहीं है।

मानवीय पहलू: एक नाम, एक आवाज़

आंकड़ों के पीछे नाम हैं, परिवार हैं, और वोट देने का अधिकार है
एक दिहाड़ी मजदूर, जो दूसरे राज्य में काम करता है—
एक बुज़ुर्ग, जो डिजिटल फॉर्म नहीं भर सकता—
एक आदिवासी महिला, जिसे यह तक नहीं पता कि उसका नाम सूची से हट चुका है—

अगर ये लोग समय पर पुनः शामिल नहीं हो पाए, तो लोकतंत्र का नुकसान सिर्फ कागज़ी नहीं होगा, मानवीय होगा

आगे की कसौटी: 14 फरवरी 2026

असली परीक्षा तब होगी जब:

  • कितने हटाए गए नाम वापस जुड़ते हैं

  • पुनः शामिल होने की प्रक्रिया कितनी आसान होती है

  • और क्या अंतिम सूची सामाजिक संतुलन दर्शाती है

SIR अपने आप में गलत नहीं है। मतदाता सूची का शुद्धिकरण लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।
लेकिन जब संख्या बहुत बड़ी हो, और समय चुनावी हो, तो सवाल उठना स्वाभाविक है।

लोकतंत्र में भरोसा सिर्फ नियमों से नहीं, भरोसे से चलता है।
और वही भरोसा इस समय सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहा है।

SIR फॉर्म: क्या सच में “आम आदमी” के लिए सहज है?

और क्या इसका घुसपैठ विरोधी अभियानों से कोई सीधा रिश्ता है?**

एक तथ्यपरक पड़ताल

जब भी लोकतंत्र की बात होती है, तो सबसे पहले ज़िक्र आता है मतदान के अधिकार का। लेकिन अधिकार तभी मायने रखता है, जब उसे इस्तेमाल करना व्यवहारिक रूप से संभव हो।
आज देश में चल रहे Special Intensive Revision (SIR) अभियान को लेकर यही बुनियादी सवाल उठ रहे हैं।

पहला सवाल: क्या SIR का फॉर्म भरना सच में सहज है?

🔹 तकनीकी तौर पर क्या है प्रक्रिया?

SIR के तहत जिन मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट सूची से हटाए गए हैं, वे:

  • Form-6 (नया नाम जोड़ने/री-इन्क्लूजन के लिए)

  • ऑनलाइन (Voter Portal / ECINET ऐप)

  • या ऑफलाइन (BLO/ERO के माध्यम से)
    भर सकते हैं।

🔹 कागज़ पर यह आसान दिखता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत?

फॉर्म में मांगी जाती है:

  • पहचान प्रमाण

  • निवास प्रमाण

  • जन्म तिथि से जुड़े दस्तावेज

  • कभी-कभी स्वयं घोषणा (self-declaration)

यहीं से मुश्किल शुरू होती है।

क्या एक अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति यह फॉर्म खुद भर सकता है?

👉 सीधा जवाब: अकेले — बहुत मुश्किल।

कारण:

  • फॉर्म की भाषा कानूनी/प्रशासनिक है

  • ऑनलाइन पोर्टल अंग्रेज़ी-प्रधान है

  • OTP, मोबाइल, इंटरनेट की जरूरत

  • दस्तावेज़ स्कैन/अपलोड करना

ग्रामीण इलाकों, आदिवासी क्षेत्रों, बुज़ुर्गों और प्रवासी मज़दूरों के लिए यह प्रक्रिया स्वत:स्फूर्त नहीं, बल्कि सहारे पर निर्भर है।

यानी:

अगर BLO सक्रिय है — तो प्रक्रिया संभव है।
अगर नहीं — तो मतदाता खुद को सिस्टम के सामने असहाय पाता है।

चुनाव आयोग का पक्ष

आयोग का कहना है कि:

  • BLO घर-घर जाकर मदद कर रहे हैं

  • ऑफलाइन विकल्प खुले हैं

  • कोई भी मतदाता बिना सुने बाहर नहीं किया जाएगा

यह दावा नियमों के स्तर पर सही है,
लेकिन व्यवहार हर जगह एक जैसा नहीं है—यही सबसे बड़ा अंतर है।

अब सबसे संवेदनशील सवाल:

क्या SIR को बांग्लादेशी–पाकिस्तानी घुसपैठियों की पहचान से जोड़ा जा रहा है?**

🔹 आधिकारिक तथ्य क्या कहते हैं?

चुनाव आयोग ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि SIR का उद्देश्य:

  • अवैध घुसपैठियों की पहचान

  • नागरिकता जांच

  • NRC/CAA जैसा सत्यापन

है।

👉 SIR का दायरा केवल “मतदाता सूची” तक सीमित है।

लेकिन जमीनी राजनीति में तस्वीर पूरी तरह अलग क्यों दिखती है?

🔹 राजनीतिक और सामाजिक नैरेटिव

कुछ राज्यों में:

  • नेताओं के बयान

  • सोशल मीडिया प्रचार

  • स्थानीय स्तर पर अफवाहें

SIR को इस तरह पेश कर रही हैं मानो:

“अब घुसपैठियों के नाम हटाए जाएंगे”

यहीं से भय और भ्रम पैदा होता है।

तथ्य क्या कहते हैं?

  • अब तक हटाए गए नामों में

    • बांग्लादेशी या पाकिस्तानी नागरिक होने का

    • कोई सार्वजनिक, सत्यापित डेटा
      चुनाव आयोग ने जारी नहीं किया है।

  • हटाने के कारण ज़्यादातर हैं:

    • मृत्यु

    • स्थानांतरण

    • डुप्लीकेशन

    • लंबे समय तक सत्यापन न होना

👉 यानी SIR को घुसपैठ पहचान अभियान कहना तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है

तो यह डर क्यों फैल रहा है?

क्योंकि भारत में:

  • मतदाता सूची

  • नागरिकता

  • पहचान

तीनों पहले से ही राजनीतिक रूप से संवेदनशील विषय हैं।

जब बड़े पैमाने पर नाम हटते हैं, और प्रक्रिया जटिल होती है, तो आम आदमी के मन में यह सवाल स्वाभाविक है:

“कहीं मुझे भी बाहर तो नहीं कर दिया जाएगा?”

लोकतांत्रिक कसौटी यही है

कानून और प्रक्रिया अपनी जगह, लेकिन लोकतंत्र की असली परीक्षा यह है कि:

  • क्या सबसे कमजोर मतदाता भी

  • बिना डर और भ्रम के

  • अपना नाम वापस जुड़वा सकता है?

अगर जवाब “पूरी तरह हाँ” नहीं है, तो सिस्टम को खुद पर सवाल करना होगा।

अंत में

  • SIR फॉर्म तकनीकी रूप से सरल, व्यवहार में कठिन है

  • अनपढ़ व्यक्ति के लिए यह प्रक्रिया स्वतःसहज नहीं

  • घुसपैठ अभियान से SIR का कोई प्रत्यक्ष, आधिकारिक संबंध नहीं

  • लेकिन राजनीतिक माहौल ने इसे संदिग्ध बना दिया है

लोकतंत्र में सफाई ज़रूरी है,
लेकिन सफाई ऐसी हो कि घर के लोग ही बाहर न रह जाएँ

Tesari Aankh
Author: Tesari Aankh

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