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अरावली विवाद: सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्यों भड़का राजस्थान

अरावली पर्वत शृंखला पर सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर 2025 के एक आदेश ने पूरे देश में बहस छेड़ दी है। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने चार राज्यों—दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात—में अरावली की एक समान वैज्ञानिक परिभाषा अपनाने को मंज़ूरी दी। इसके फलस्वरूप प्रकृति संरक्षण के परंपरागत ढांचे में बदलाव आया, जिससे पर्यावरण संगठन, जनता और विपक्षी राजनीति के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई।

मुख्य विवाद का कारण यह है कि नई परिभाषा केवल उन भूमि रूपों को ‘अरावली Hills’ के रूप में मानती है जिनकी ऊँचाई आसपास के इलाके से कम से कम 100 मीटर अधिक होती है। इससे पुराने नियमों के अनुसार अरावली के व्यापक भूभाग से बाहर रह जाने की आशंका पैदा हुई।

1.  अरावली पर्वत शृंखला: क्या है भौगोलिक व पर्यावरणीय महत्व?

अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिमी भारत की एक प्राचीन पहाड़ी श्रृंखला है, जो लगभग 670 किलोमीटर लंबे भूभाग में फैली है और दुनिया की एक सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से मानी जाती है। यह गुजरात से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में विस्तृत है।
पर्यावरणीय भूमिका
1. रेगिस्तान विस्तार को रोकना: यह थार रेगिस्तान के प्रसार को रोकने में मदद करता है।
2. भू-जल पुनर्भरण: अरावली से कई छोटी नदियाँ और धाराएँ निकलती हैं, जो अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए जीवन-रेखा का काम करती हैं।
3. वायु गुणवत्ता प्रभावित करना: उपस्थित हरियाली और पहाड़ियों का नेटवर्क आसपास के इलाके, विशेषकर दिल्ली-NCR के वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में योगदान देता है।
4. बायोडायवर्सिटी: कई वन्यजीवों के आवास और जैविक विविधता इसके हरे भूभागों में पाई जाती है।
5. स्थानीय समुदायों के लिए जीवन-साधन: पहाड़ी ढलानों पर खेती, चरागाह और जल स्रोत ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं।

2. सुप्रीम कोर्ट का आदेश: क्या कहा गया?

(i) वैज्ञानिक परिभाषा
सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को माना कि:
• Aravalli Hill: किसी “designated Aravalli district” में मौजूदा स्थानीय भूमि से 100 मीटर या अधिक उठने वाला भू-रूप ही ‘अरावली हिल’ होगा।
• Aravalli Range: दो या दो से अधिक ऐसे hills जो 500 मीटर के भीतर हों, उन्हें एक range माना जाएगा।
सरकारी ब्यौरे के अनुसार इस नियम के प्रभाव से कुल अरावली में केवल लगभग 0.19% क्षेत्र ही खनन गतिविधियों के लिए संभावित रूप से खुला माना जाएगा, और 90% से अधिक क्षेत्र संरक्षित रखा जाएगा।
(ii) खनन संबंधी निर्देश
• नई खनन लीज़ों पर पूर्ण रोक; मौजूदा वैध खनन जारी रह सकता है, लेकिन नियंत्रण और निगरानी सख्त होगी।
• सरकार को एक सस्टेनेबल माइनिंग मैनेजमेंट प्लान (Sustainable Mining Management Plan) तैयार करने का निर्देश दिया गया, जिस पर पूरी निगरानी कार्बन-नियंत्रण और स्थिरता तंत्र पर होगी। Jagranjosh.com+1
(iii) निगरानी तंत्र
• ड्रोन और अन्य तकनीकों के साथ निगरानी का इस्तेमाल करना।
• अरावली के संवेदनशील इलाकों में “नो-गो” क्षेत्रों की पहचान और सुरक्षा।

3. विवाद और विरोध: लॉजिक क्या है?

(i) विरोधियों की मुख्य चिंता
परिवेशविद्, किसान समूह, राजनेता और जनता के हिस्सों का कहना है कि:
• 90% से अधिक हिस्सा अब ‘अरावली से बाहर’ रहता दिखता है, क्योंकि इन पहाड़ियों की ऊँचाई 100 मीटर से कम है और वे पिछले पारिस्थितिक ढांचे के तहत संरक्षित थीं।
• इन कम ऊँचाई वाले भू-भाग—जो वायु धूल रोके, groundwater recharge करें और जैव विविधता का सहारा हों—को नई परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है।
• इससे खनन, निर्माण, अवैध गतिविधियाँ तथा भूमि उपयोग परिवर्तन की संभावना बढ़ जाएगी।
प्रदर्शन, सड़क मार्च, ऑनलाइन अभियान (#SaveAravallis) और राजनीतिक विरोध इन चिंताओं को लेकर तेज हुए हैं।
(ii) वास्तविक चिंता का आधार
कई भू-विज्ञानी कहते हैं कि सिर्फ ऊँचाई को आधार मानना पारिस्थितिक फ़ंक्शन को नजरअंदाज़ कर सकता है, क्योंकि निचले hills के ecological roles—groundwater recharge, dust control, seasonal water channels—भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
कुछ रिपोर्टों में यह भी बताया गया कि Forest Survey of India (FSI) के आंकड़ों के मुताबिक केवल छोटे प्रतिशत ही hills 100 मीटर से अधिक हैं; इससे अन्य छोटे लेकिन महत्वपूर्ण भू-भागों की सुरक्षा चुनौती में पड़ सकती है।

4. सरकार और समर्थकों का पक्ष

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने स्पष्ट किया कि:
• यह निर्णय पर्यावरण संरक्षण के खिलाफ नहीं है, बल्कि सभी राज्यों में एक वैज्ञानिक, स्पष्ट नियम पर सहमती है।
• माइनिंग पर नियंत्रण पहले से सख्त है, और NCR में खनन पूरी तरह बंद रखा जाता है।
• 90% से अधिक अरावली क्षेत्र संरक्षित रहेगा और खनन की अनुमति केवल 0.19% क्षेत्र में ही संभावित है—जिस पर अतिरिक्त निगरानी होगी।
सरकार का कहना है कि misinformation फैलाया जा रहा है, और 100-मीटर मानदंड को गलत तरीके से प्रचारित किया जा रहा है—यह सिर्फ शीर्ष भू-आकार मापदंड नहीं, बल्कि स्थानीय terrain (local relief) के हिसाब से लिया गया वैज्ञानिक पैमाना है।

5. अरावली का पारिस्थितिक योगदान (वैज्ञानिक आधार)

(i) जल स्रोत और नदी-धाराएँ
अरावली से बहने वाली धाराएँ जैसे Chambal, Banas, Sahibi इत्यादि छोटे नदी तंत्रों के लिए पानी का स्रोत हैं। इनका अस्तित्व भू-जल स्तर और कृषि के लिए महत्वपूर्ण है। The New Indian Express
(ii) वायु प्रदूषण नियंत्रित करना
अरावली range, विशेषकर NCR के पास, प्रदूषण फैलने को रोकने और धूल के संचरण को बाधित करने में मदद करती हैं। यह भूमिका Delhi-NCR के वायु गुणवत्ता मुद्दों से सीधे जुड़ी है।
(iii) जैव विविधता और वन्य जीव
आरावली पहाड़ियों की वनस्पति और पशु जीवन विभिन्न प्रजातियों के लिए प्राकृतिक आवास प्रदान करते हैं। संरक्षण से जुड़े नियम इन fragile eco-systems को सुरक्षित रखते हैं।

6. विरोध की राजनीति और सामाजिक प्रतिक्रिया

राजस्थान में विपक्षी दलों और स्थानीय समूहों ने इस फैसले को लेकर विरोध तेज कर दिया है। कांग्रेस सहित सामाजिक संगठनों ने प्रदर्शन और धरना-प्रदर्शन किए हैं, जहां यह आरोप लगाया गया कि नई परिभाषा से अरावली का अस्तित्व खतरे में है और राज्य की पर्यावरणीय सुरक्षा कमजोर होगी। Patrika News+1
स्थानीय लोगों और छात्रों द्वारा sit-ins, demonstration और डिजिटल कैम्पेन भी चलाये जा रहे हैं—जिनमें कुछ का लक्ष्य सरकार और न्यायपालिका को पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करना है।

7. कानूनी और नीतिगत विचार

(i) न्यायपालिका का स्थगन या पुनर्विचार संभव?
• सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक panel-defined scientific definition पर आधारित है।
• समुदायों की मांग है कि entire Aravalli ecosystem को ध्यान में रख कर पुनर्विचार हो।
न्यायालय के स्तर से future में review petitions और environmental advocacy पर गंभीर बहस होने की सम्भावना बनी हुई है।
(ii) नीति रूपांतरण और संरक्षण योजना
• सरकार ने Aravalli Green Wall Project और sustainable mining framework जैसी योजनाओं पर काम शुरू किया है, ताकि long-term ecological restoration और climate adaptation पर ध्यान दिया जा सके।
• यह प्राकृतिक buffer zones, afforestation और regulated land use की ओर एक प्रयास है।

8. निष्कर्ष: संतुलन बनाम संरक्षण

अरावली विवाद सिर्फ एक परिभाषा का प्रश्न नहीं है—यह पारिस्थितिकीय तंत्र, सामाजिक अर्थव्यवस्था, खनन नीति, न्यायपालिका-सरकार के बीच संवाद और शासन प्रणाली की क्षमता का एक गम्भीर परीक्षण है।
• सुप्रीम कोर्ट का प्रयास एक सुसंगत वैज्ञानिक ढांचा बनाना था।
• विरोधियों की चिंता पर्यावरणीय संरक्षण के अस्थायी ढांचे को कमजोर करने की है।
• सरकार यह तर्क देती है कि नियमों का उद्देश्य अधिक सुरक्षा, निगरानी और वैधानिक स्पष्टता प्रदान करना है।
इस बहस का अंत केवल तकनीकी सवालों पर नहीं बल्कि भारत के पर्यावरणीय शासन, सामाजिक चेतना और नीति दिशा पर निर्भर करेगा।
नीचे अरावली विवाद के चुनावी और नैतिक (Ethical & Electoral Dimensions) पर आधारित ≈600–700 शब्दों का UPSC-उपयोगी Essay-style लेख दिया जा रहा है। यह GS-4 (Ethics), GS-2 (Governance) और Essay Paper—तीनों के लिए प्रासंगिक है।

अरावली विवाद: पर्यावरण संरक्षण, राजनीति और नैतिक शासन का द्वंद्व

अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर 2025 के आदेश के बाद उपजा विवाद केवल एक पर्यावरणीय या कानूनी प्रश्न नहीं है, बल्कि यह भारत की लोकतांत्रिक राजनीति, चुनावी नैतिकता और शासन की मूल्य-व्यवस्था से गहराई से जुड़ा हुआ मुद्दा बन चुका है। यह बहस इस मूल प्रश्न को सामने लाती है कि क्या विकास और पर्यावरण संरक्षण को चुनावी लाभ-हानि के चश्मे से देखा जाना चाहिए, या नीति-निर्माण को दीर्घकालिक जनहित और नैतिक जिम्मेदारी से निर्देशित होना चाहिए।
चुनावी राजनीति और पर्यावरण: एक असहज रिश्ता
भारत की चुनावी राजनीति में पर्यावरण लंबे समय तक एक secondary issue रहा है। रोजगार, जाति, धर्म और सब्सिडी जैसे मुद्दों के सामने पारिस्थितिकी अक्सर पीछे धकेल दी जाती है। अरावली विवाद में भी यही प्रवृत्ति दिखती है।
जहाँ एक ओर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को वैज्ञानिक और संतुलित बताकर “मिसइन्फॉर्मेशन” का आरोप लगा रही है, वहीं विपक्ष इसे खनन-हितैषी और कॉरपोरेट-फ्रेंडली नीति बताकर जनता को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है।
यह स्थिति दर्शाती है कि पर्यावरण संरक्षण कई बार वोट-बैंक राजनीति का औज़ार बन जाता है—ना कि नीति-निर्माण का नैतिक आधार।

नैतिक प्रश्न: विकास किस कीमत पर?

अरावली विवाद का सबसे बड़ा नैतिक प्रश्न है—
क्या अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति को स्वीकार किया जा सकता है?
अरावली:
• थार मरुस्थल के विस्तार को रोकती है
• दिल्ली-NCR की वायु गुणवत्ता और भू-जल सुरक्षा में योगदान देती है
• लाखों लोगों की आजीविका और जीवन-गुणवत्ता से जुड़ी है
ऐसे में यदि किसी नीति या न्यायिक परिभाषा से इसके कुछ हिस्से संरक्षण से बाहर होते हैं, तो यह Inter-Generational Ethics का प्रश्न बन जाता है—
क्या वर्तमान पीढ़ी को भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों पर निर्णय लेने का नैतिक अधिकार है?

राज्य, न्यायपालिका और नैतिक उत्तरदायित्व

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में नियामकीय स्पष्टता और वैज्ञानिक एकरूपता पर ज़ोर दिया है। यह Rule of Law और Administrative Efficiency के दृष्टिकोण से उचित है।
लेकिन नैतिक शासन केवल कानूनी वैधता तक सीमित नहीं होता—उसमें सहानुभूति (Empathy), सावधानी (Precaution) और जन-संवाद भी शामिल होता है।
यदि आम नागरिक, किसान और पर्यावरणविद् यह महसूस करते हैं कि उनकी चिंताओं को सुना नहीं गया, तो शासन की नैतिक वैधता कमजोर होती है—भले ही निर्णय तकनीकी रूप से सही क्यों न हो।
लोकतंत्र में विरोध: नैतिक या राजनीतिक?
अरावली को बचाने के नाम पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों को केवल “राजनीतिक स्टंट” कहकर खारिज करना भी नैतिक रूप से उचित नहीं है।

https://x.com/PhiliposeRentu/status/2003318816873545821?s=20

लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध:

• जन-चेतना का माध्यम है
• नीति-निर्माताओं को पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है
• शासन को जवाबदेह बनाता है
हाँ, यह भी उतना ही सच है कि जब पर्यावरणीय मुद्दों का इस्तेमाल केवल चुनावी ध्रुवीकरण के लिए किया जाता है, तब वे अपनी नैतिक शक्ति खो देते हैं।
चुनावी नैतिकता और दीर्घकालिक दृष्टि
एक नैतिक चुनावी राजनीति की पहचान यह है कि:
• वह लोकप्रिय लेकिन अल्पकालिक निर्णयों से बचे
• वैज्ञानिक तथ्यों को नकारने के बजाय संवाद बढ़ाए
• पर्यावरण जैसे मुद्दों को घोषणापत्रों तक सीमित न रखे
अरावली विवाद यह दिखाता है कि भारत में अभी भी Green Politics एक परिपक्व चुनावी एजेंडा नहीं बन पाई है।

https://tesariaankh.com/yamuna-expressway-overspeeding-road-accidents-up/

निष्कर्ष: समाधान कहाँ है?

अरावली विवाद का समाधान न तो केवल अदालत में है, न ही सड़कों पर। समाधान है—
• पारदर्शी संवाद
• वैज्ञानिक डेटा की सार्वजनिक उपलब्धता
• पर्यावरणीय निर्णयों को चुनावी चश्मे से मुक्त करना
एक नैतिक लोकतंत्र वही होता है जहाँ सरकार, न्यायपालिका और नागरिक—तीनों यह स्वीकार करें कि
प्रकृति कोई राजनीतिक संपत्ति नहीं, बल्कि साझा विरासत (Common Heritage) है।
यदि अरावली बची रहेगी, तो राजनीति भी बचेगी।
लेकिन यदि राजनीति के कारण अरावली कमजोर हुई, तो उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियाँ चुकाएँगी—बिना वोट देने के अधिकार के।

Tesari Aankh
Author: Tesari Aankh

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