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UPSC Topper Essay: भविष्य या तो हरा होगा, या फिर होगा ही नहीं

UPSC Topper Essay: कुछ समय पूर्व ही न केवल भारत, बल्कि विश्व ने COVID-19 जैसी घातक महामारी का सामना किया, हमने सैकडो लोगो को ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण असमय मृत्यु के मुँह में जाते देखा, हमने पहली बार महसूस किया, कि सबसे आसानी से उपलब्ध होने वाली चीज (वायु h20) कितनी दुर्लभ हो चुकी थी, और इसी वायु को प्राणदायी स्रोत के रूप में हरे पेड़ पौधे हम तक पहुंचाते है, क्या ऐसे में इनका कटाव हमारी सभ्यता को और अधिक गंभीर खतरा पैदा नहीं करेगा। और न केवल इनकी उपयोगिता को वायु तक सीमित रखते हुए देखना चाहिए, ब्लाक हमने कई विद्वानो के कथनों में यह भी देखा है, कि –

अगला विश्व युद्ध जल के मुद्दे को लेकर घटित हो सकता है,

तो ऐसे जो हरे पेड-पौधे, मिट्टी की जड़ों को कसकर बाँधे रहते हैं, ताकि का संरक्षण हो सके, और पर्यावरण से जल को आकर्षित करने, एवं वर्षा कराने में योगदान देते हैं, उनका इतनी अंधाधुंध तरीके से विनाश क्यो हो रहा है? और लोगो को इस बारे में जागरुकता कैसे प्रदान की जा सके, ये आज का प्रमुख मुद्दा माना जा रहा है जैसा कि हमारा आज का टॉपिक है कि-भविष्य या तो हरा होगा, या फिर होगा ही नहीं तो हम पहले इसके पूर्व भाग को समझने का प्रयास करते है

‘हरा’, ये केवल पेड-पौधों की परिभाषा से सीमित नहीं है, इसमें लाखो जीव-जंतु, पर्यावरण में पाए जाने अन्य घटक (सूक्ष्मजीव), प्राथमिक उत्पादक के रूप में पायी जाने वाली हरी घास, से लेकर जल में पाए जाने वाली नील हरित शैवाल भी इसका हिस्सा होती है।

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इस दायरे में ‘विश्व के फेफडे’ कहे जाने वाले घने वर्षा वन भी आते हैं, तो वहीं अपनी शुरू और काँटेदार पतियों के किए जाने जाने वाले (मरुदभिद) भी आते हैं।

तो ऐसे में हरे की परिभाषा का दायरा भी इसके महत्व की तरह विस्तृत है।
बचपन में एक गीत बहुत प्रचलित रहा था-

नदियाँ न पिये कभी अपना जल,

वृक्ष न खाये कभी अपना फल,

अपने तन को, मन को धन को,

देश को देदे जान रे, वो सच्चा इंसान रे

तो प्रकृति हमसे कुछ लेती नहीं है, बल्कि सदैव एक माता की तरह हम पर असीम प्रेम बनाए रखती है, तो हम पहले उन्ही पहलु‌ओं की चर्चा करते है-

आज भारत में 10.6% के करीब आदिवासी जनसंख्या है, जिनका प्राथमिक आय स्त्रोत वनोपज और उनसे संबंधित अन्य गौण उत्पादों को बेचकर वह अपना जीवन यापन करते हैं, ऐसे में हरित पर्यावरण, एक आर्थिक स्रोत के रूप में कार्य करता है, और जिस तरह हम 5 ट्रिलियन इकॉनमी का सपना देख रहे हैं, उसे साकार करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
दूसरे पहलू कि बात करें- वह है जलवायु परिवर्तन पूरा विश्व इससे जूझ रहा है, ऐसे मे कार्बन पृथक्करण अवशोषण, और संग्रहण में भी ये एक सिंक का कार्य करते ही तो अगर हमे छठवें मास एक्सटिंट से बचना है, तो उसमे ये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

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हमे ज्ञात है, जब प्रथम नगरीकरण के दौर में (हडप्पा सभ्यता), प्रकृ‌तिपूजा और मातृदेवी की योनि में से निकलते हुए पौधे की पूजा की जा रही थी, वह वास्तव में इनके तात्कालिक महत्व को बहुत मच्छे तरीके से उजागर करती है।

आज वैश्विक स्तर पर जो प्रयास किए जा रहें है, विशेषतः ‘ग्रीन क्लाइमेट’ को लेकर वह इसकी महत्ता को और बढ़ा रहे हैं।

अब हम अपने टॉपिक के दूसरे भाग पर चलते है, कि क्या हरे के बिना जीवन होगा ही नहीं?

इसका उत्तर देना कठिन नहीं है, क्योंकि हरे के बिना पृथ्वी के जीवन की कल्पना का मतलब, कुछ ऐसा ही है मानो जैसे बिना जड़ के कोई पौधा जिसका मस्तिव समाप्त हो जाता है।

आज हमने देखा कि पर्यावरण को संरक्षण करने के सैकडो प्रयासों के बाद भी वे सफल क्यों नहीं हो पा रहे है, और हरित शृंखला को मानव द्वारा सर्वाधिक नुकसान क्यों पहुंचाया जा रहा है।

तो पहले हम उन कारणों को समझने का प्रयास करते है, जिनके कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है-

सबसे पहला तो बढ़ती हुई जनसंख्या, जिसे रहने के आवास की आवश्यकता होती है.
तो वह अपने रहवास के लिए, पर्यावरणीय आवास का अतिक्रमण करता है, जिससे कि हरित प्रभाव कम होता जाता है।

दूसरा मनुष्यों के रहन सहन का स्तर समय के साथ परिवर्तित होता भी दिख रहा है और उनके द्वारा संसाधनों का अधिकाधिक दोहन करने की नीति अपनाई जा रही है ऐसे में सतत विकास के लक्ष्य पीछे छूटते जा रहे है।

हालाँकि केवल मानव पर दोषारोपण कर देना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि पशुओं द्वारा अतिचारण, बाढ़-सूखा की कृत्रिम बारंबरता, मरुस्थलीकरण की बढ़ती प्रक्रिया, जैसी प्राकृ‌तिक प्रक्रियाएं भी अपना योगदान देती है, परंतु प्रकृति स्वयं के द्वारा की गई विपदाओं- आपदाओं की क्षतिपूर्ति आसानी से कर लेती है, परंतु जब उसमें मानव का हस्तक्षेप बढ़ जाता है, वहाँ प्रक्रिया चिंताजनक हो जाती हैं.

हमने हरित व्यवस्था के कई आयामो पर चर्चा की है, चुनौतियों पर भी नजर डाली है, तो अब बारी है, क्या समाधान आप्त किया जा सकता है।

भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व के अनुः 48-A’ पर्यावरण एवं वन-वन्यजीव संरक्षण की बात करता है, ऐसे में एक कल्याणकारी राज्य का दायित्व बनता है, कि वह पर्यावरण संरक्षण के लिए कदम उठाए। और इसी क्रम में –

वन संरक्षण अधिक 1980, पर्यावरण संरक्षण अथि. 1986 और जैव विविधता अधि. 2002 जैसे कानूनी प्रावधानों की व्यवस्था की गई है।

गैर सरकारी संगठन भी इसमें अपनी भूमिका निभा सकते है, और वे वित्त से लेकर जनसहभागीदारी तक अपना योगदान दे रहे है, जिनमें –

(2) बाँबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी

(२) वाइ‌ल्ड लाइफ फंड फॉर नेचर
इनका दायरा और अधिक विक‌सित करने के हिए, तथा पर्यावरण संरक्षण को एक जन आंदोलन में तब्दील करने हेतु प्रधानमंत्री मोदी ने – कॉप COP 27 में मिशन लाइफ (lifestyle for enviomment) की घोषणा की। और तृणमूल स्तर पर हरित व्यवस्था को बनाए रखने का आह्वान किया।

अर्थव्यवस्था से भी हरित पर्यावरण को जोड़ा जा रहा है, और ग्रीन GDP, जैसी अवधारणाएं सामने आ रही हैं, जिसका तात्पर्य, कुल GDP में से पर्यावरण को होने वाली हानि एवं उसकी क्षतिपूर्ति में व्यय होने वाली राशि को घटाकर प्राप्त किया जाता है, इसका उद्देश्य पर्यावरण के आर्थिक चरित्र को सबके सामने लाना है।
ग्रीन एनर्जी आज विश्व का सबसे संवेदनशील मुद्दा है, क्योकि आज अक्षय ऊर्जा (सूर्य, पवन, लघु पन बिजली, जैव, बायोमास, नाभिकीय…) के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन को कम करने का प्रयास किया जा रहा है, वहीं अंर्तराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) के वैश्विक प्रतिनिधि के रूप में भारत की छवि और अधिक सुदृढ़ हो रही है।

ग्रीन अकाउंटिंग के माध्यम से, ग्री ऊर्जा और अन्य क्षेत्रो मे उसकी प्रगति का भी मापन हो रहा है, और उसका लेखा-जोखा भी किया जा रहा है। और जो कंपनिया ग्रीनवाशिंग (अपने उत्पादों को प्रतीकात्मक रूप से पर्यावरण अनुकूल दिखाना) को अंजाम दे रही हैं, उन पर भी नियंत्रण करने का प्रयास किया जा रहा है।
अब हम अपनी चर्चा के अंतिम चरण में प्रवेश करते है, जहाँ हम वर्तमान के के सबसे बडे मुद्दे यथा-(green vs development) / (विकास बनाम पर्यावरण) की भी चर्चा करते है, आम तौर पर भारत चीन जैसे विकासशील राष्ट्र कार्बन उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा निष्कासित करते है, ऐसे मे आवश्यक हो जाता है, कि विकास एवं पर्यावरण संरक्षण में सामंजस्य हो। परंतु वास्तविकता में अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों द्वारा 1850 से की गई ‘अंधी आधुनिक दौड़’ जिसमें भविष्य को पूर्णतः दरकिनार कर दिया गया था, भारत आज भी अपनी प्रतिबद्ध‌ताओं के लिए विस्तृत रोडमैप बनाए हुए है, जिनमे 2070 तक नेटजीरो इमिशन, वहीं 2047 तक ऊर्जा आत्मनिर्भर देश बनना जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य शामिल हैं।

प्रकृति माँ के समान हमारा लालनपालन करती है, ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हम भी आपने नैतिक दायित्व को समझें,

पृथ्वी हरी भरी रहे, अपने स्वरूप में समावेशित विकास को आगे बढ़ाती रहे, और पेरिस एग्रीमेंट के हमारे सतत विकास लक्ष्यों के प्रति भी हमारी प्रतिबद्धता बनी रहे, ऐसा हम सभी को संकल्प लेना चाहिए, और पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान देना चाहिए।

हमारे भारतीय समाज में पर्यावरण को बचाने संबंधित कई उदाहरण दिखायी देते हैं, यहाँ महिलाएं अपने वृक्षों की रक्षा में अपने प्राण तक न्यौछावर करने के लिए तैयार रहती हैं,
महात्मा गाँधी जी ने भी कहा है कि-

‘प्रकृति आपकी सारी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है, परंतु आपकी लालच को नहीं इसलिए हमें इसके महत्व को समझते हुए, इसके बारे में और अधिक जागरूकता को बढ़ाना चाहिए, और व्यक्तिगत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक एक जनांदोलन के रूप में हरित संरक्षण को उभारना चाहिए।

विवेक यादव | रैंक-413 (UPSC CSE 2024)

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Author: Tesari Aankh

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