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कांग्रेस: राहुल गांधी अपनी विरासत से सबक लें तभी सशक्त विकल्प बन पाएंगे

संघर्ष, संकल्प और सबक: कांग्रेस की जड़ों से पुनर्निर्माण की यात्रा

नई दिल्ली। आधुनिक भारतीय राजनीति में कांग्रेस का संघर्ष एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर है। एक ऐसी पार्टी, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज़ाद भारत के हर चरण को दिशा दी, जो लोकतंत्र की संस्थाओं की निर्माता रही—आज उसको अपने अस्तित्व के संकट से दो-चार होना पड़ रहा है। यह संघर्ष केवल भाजपा बनाम कांग्रेस का नहीं, बल्कि कांग्रेस बनाम कांग्रेस का है—जहां पार्टी अपने ही इतिहास, आदर्शों और संगठनात्मक ढांचे के भीतर जवाब तलाश रही है।

पार्टी के वरिष्ठ नेता मानने लगे हैं कि कांग्रेस की मौजूदा मुश्किलें चुनावी पराजयों तक सीमित नहीं हैं। वे गहरी और संरचनात्मक हैं—संगठन की जमीनी कमजोरी, नेतृत्व की अनिश्चितता, वैचारिक भ्रम और कार्यकर्ताओं के क्षीण आत्मविश्वास ने उस पार्टी को कमजोर कर दिया है, जो कभी ‘राष्ट्रीय आंदोलन’ का दूसरा नाम थी।

पहचान का संकट और आत्ममंथन का दौर

पिछले एक दशक में कांग्रेस जिस निरंतर पतन से गुज़री है, उसने उसकी सबसे बड़ी पूंजी — उसका “नेशनल नैरेटिव” — धुंधला कर दिया। कांग्रेस का वैचारिक एजेंडा, जो “सेक्युलरिज़्म, सामाजिक न्याय और संस्थागत लोकशाही” पर आधारित था, अब प्रतिक्रियात्मक स्वरूप में सिमट कर रह गया है। भाजपा जहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व की छवि से मतदाता को आकर्षित करती रही, वहीं कांग्रेस अपनी तय पहचान को लेकर बार-बार असमंजस में दिखी।

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इस असमंजस ने न केवल उसके रणनीतिक फोकस को कमजोर किया, बल्कि युवा पीढ़ी में यह संदेश भी गया कि पार्टी अपने आप में परिवर्तन को लेकर गंभीर नहीं है। यही कारण है कि राहुल गांधी की “भारत जोड़ो यात्रा” जैसी कोशिशें भले जनता में भावनात्मक जुड़ाव पैदा करें, लेकिन संगठनात्मक रूपांतरण में उनका सीमित असर दिखा। समस्या यह नहीं कि कांग्रेस जमीन पर नहीं जाती—समस्या यह है कि वहाँ पहुंचकर वह क्या संदेश देती है, इसमें स्पष्टता नहीं है।

भीतर की चुनौती: संगठन से नेतृत्व तक

कांग्रेस की जड़ों की सबसे बड़ी कमजोरी अब संगठन है। बूथ स्तर पर सक्रियता लगभग गायब है। कई राज्यों में जिला और ब्लॉक इकाइयां निष्क्रिय हैं, और पार्टी की बात जनता तक नहीं पहुंचती। भाजपा की बूथ मैनेजमेंट प्रणाली जैसे अनुशासित कैडर नेटवर्क की तुलना कांग्रेस नहीं कर पाती।

वरिष्ठता-आधारित संस्कृति ने कई स्थानों पर ऊर्जा रोक दी है। युवा कार्यकर्ताओं को मौका नहीं मिलता, और अनुभवी नेताओं की प्राथमिकता सत्ता या कोटा आधारित समायोजन में सिमट जाती है।
इस ढांचे को बदलना—शायद आज कांग्रेस की सबसे चुनौतीपूर्ण परंतु जरूरी लड़ाई है।

https://tesariaankh.com/pankaj-chaudhary-bjp-2027-kurmi-card-yogi-organization-balance/

पार्टी के भीतर ही आत्मचिंतन की आवाज़ें बुलंद हुई हैं। कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि “पद अब सम्मान नहीं, जिम्मेदारी का विषय हो” — यही संगठन को पुनर्जीवित करने की पहली शर्त है। हालिया निर्णयों में पार्टी ने ज़िला और ब्लॉक स्तर पर नियुक्ति प्रक्रिया को तेज़ किया है, प्रशिक्षण शिविरों और परफॉर्मेंस समीक्षा जैसे कदम भी शुरू किए हैं।

इन प्रयासों से संकेत मिलता है कि कांग्रेस अब “समय बदलने का इंतज़ार” नहीं, बल्कि “स्थिति बदलने की कोशिश” में जुटी है।

नेहरू से सोनिया तक: इतिहास से सबक लेने की जरूरत

कांग्रेस का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि संकट ही उसका सबसे बड़ा शिक्षक रहा है। हर युग में वह गिरकर उठी — लेकिन हर बार नए संदर्भ और नए नेतृत्व के साथ। आज के संकट का इलाज भी शायद इन्हीं चार निर्णायक पड़ावों की सीख में छिपा है।

नेहरू: संस्थागत भरोसा और वैचारिक स्पष्टता

जवाहरलाल नेहरू ने संकट के दौर में जो सबसे बड़ी विरासत छोड़ी, वह थी “सोचने की क्षमता” — तात्कालिक लाभ से ऊपर राष्ट्र की दिशा पर विचार। अगर आज नेहरू होते, तो वे कांग्रेस को उस बौद्धिक मजबूती की याद दिलाते जिसने पार्टी को सिर्फ सत्ता नहीं, उद्देश्य दिया था।
उनकी प्राथमिकता होती—लोकतंत्र की संस्थाओं की रक्षा, संविधान की भावना की पुनर्स्थापना और दीर्घकालिक वैचारिक प्रशिक्षण।
आज की कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यही है: वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव।

इंदिरा गांधी: निर्णायक नेतृत्व और जनकेंद्रित राजनीति

इंदिरा गांधी ने जिस तरह 1969 में कांग्रेस को नए सिरे से गढ़ा, उससे एक बात स्पष्ट होती है—निर्णय में साहस ही राजनीति का असली ईंधन है। उन्होंने विभाजन को अवसर में बदला, और “गरीबी हटाओ” जैसा नारा देकर सत्ता के विमर्श को बदला।
यदि आज वे होतीं, तो सबसे पहले निष्क्रिय नेताओं को किनारे रखतीं, और असली संघर्षशील चेहरों को आगे लातीं। वे गरीब, किसान और निचले तबके को राजनीतिक बहस के केंद्र में रखतीं।
इंदिरा गांधी की शैली टकराव में राजनीतिक ऊर्जा खोजती थी—आज कांग्रेस उसी साहस की सबसे ज्यादा भूखी है।

राजीव गांधी: तकनीक और परिवर्तन की दृष्टि

राजीव गांधी उस संक्रमण काल के नेता थे, जिन्होंने राजनीति में आधुनिकता का बीजारोपण किया। उन्होंने तकनीक और युवाओं को राजनीति के केंद्र में लाने का प्रयास किया।
आज अगर कांग्रेस को भविष्य की राजनीति करनी है, तो संगठन में डेटा, प्रोफेशनलिज़्म और टेक्नोलॉजी का व्यापक उपयोग जरूरी होगा। “राजनीति में नया भारत” की वैकल्पिक परिकल्पना—यानी नैतिकता और नवाचार का मेल—राजीव की सीख थी जिसे आज फिर से पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

सोनिया गांधी: संयम और गठबंधन की कला

सोनिया गांधी का दौर संघर्ष और सामंजस्य का रहा। उन्होंने 1998 से 2004 तक पार्टी को राजनीतिक मृत्यु से उबारकर फिर सत्ता तक पहुंचाया। गठबंधन को मजबूरी नहीं, रणनीतिक अवसर बनाया।
आज INDIA गठबंधन की परिस्थिति में अगर सोनिया गांधी जैसी समझदारी लागू हो—जहां अहं से ऊपर सहमति और साझा सोच को वरीयता मिले—तो कांग्रेस फिर से केंद्रीय भूमिका निभा सकती है।

राहुल गांधी और सड़क की राजनीति की वापसी

राहुल गांधी की यात्राएं—भारत जोड़ो और न्याय यात्रा—ने एक तथ्य को स्थापित किया है: कांग्रेस तब जीवित दिखती है जब वह जनता के बीच होती है, न कि केवल बयानबाज़ी में।
राहुल गांधी का मॉडल “पब्लिक पॉलिटिक्स” का प्रतीक है। परंतु इस ऊर्जा को संगठन निर्माण से जोड़ने की जरूरत है। अगर ये यात्राएं उसी तरह स्थानीय नेतृत्व खोजने और बूथ स्तर पर नेटवर्क बनाने का माध्यम बनें, तो यह पार्टी के पुनर्जीवन की ठोस शुरुआत हो सकती है।
आज की कांग्रेस को यह तय करना होगा कि वह आंदोलनों को “इवेंट” के रूप में देखेगी या “संघर्ष की निरंतरता” के रूप में।

वैचारिक स्पष्टता और नैरेटिव की लड़ाई

राजनीति में विचार की स्पष्टता ही अंततः संगठन को दिशा देती है। भाजपा का नैरेटिव “राष्ट्रवाद” और “संस्कृति” के इर्द-गिर्द घूमा है। कांग्रेस अगर वैकल्पिक विचारधारा स्थापित करना चाहती है, तो उसे संविधान, सामाजिक न्याय, बेरोजगारी और महंगाई जैसे विषयों को जन-जीवन से जोड़ना होगा।

उदाहरण के लिए—

  • महंगाई को केवल अर्थशास्त्र नहीं, रसोईघर का मुद्दा बनाना।

  • बेरोजगारी को सिर्फ आंकड़ों का नहीं, युवाओं के भविष्य का सवाल बनाना।

  • संविधान की रक्षा को केवल कानूनी नहीं, नागरिक अधिकारों की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत करना।

इसी प्रकार, “संवैधानिक राष्ट्रवाद”—जो विविधता में एकता की भावना को सशक्त करे—भाजपा के भावनात्मक राष्ट्रवाद की वैचारिक काट बन सकता है।

गठबंधन: राजनीति की नई यथार्थता

आज यह मान लिया गया है कि कांग्रेस में अकेले सत्ता में लौटने की ताकत नहीं है। INDIA गठबंधन उसकी राजनीतिक ताकत का विस्तार कर सकता है, बशर्ते यह सहयोग केवल सीट-साझेदारी नहीं, विचार साझा करने की भी प्रक्रिया बने। जो संभव नहीं है। जहां कांग्रेस कमजोर है, वहाँ उदार सीट साझेदारी; और जहां मजबूत है, वहाँ नेतृत्व की स्पष्टता—यही सोनिया गांधी का परीक्षित फार्मूला है। इंदिरा ने 1971 में “इंडिकेटिव गठबंधन” बनाया था, जिसमें नियंत्रण उनके हाथ में रहा पर सहयोगी असंतुष्ट नहीं हुए। कांग्रेस को आज उसी सामरिक संतुलन की आवश्यकता है। या फिर कांग्रेस को अकेले ही आगे आकर देश को नेतृत्व देना होगा।

इच्छाशक्ति बनाम विरासत

कांग्रेस के पास इतिहास है, संगठन की विरासत है, और अनेक नैतिक उदाहरण हैं। परंतु इतिहास प्रेरणा तो देता है, निर्णय लेना वर्तमान का कार्य है।
आज कांग्रेस का सबसे बड़ा सवाल यह है—क्या वह अपनी विरासत को केवल भाषणों तक सीमित रखेगी या उसे रणनीति का औज़ार बनाएगी?

सत्ता और अस्तित्व दोनों की लड़ाई में कांग्रेस को तीन स्तरों पर इच्छाशक्ति दिखानी होगी:

  1. संगठनात्मक इच्छाशक्ति:
    निष्क्रियता के खिलाफ कठोर कदम, युवा कार्यकर्ताओं की निर्णायक भूमिका और जवाबदेही की संस्कृति।

  2. राजनीतिक इच्छाशक्ति:
    एजेंसी दबाव, सत्ता के प्रोपेगेंडा और मीडिया नैरेटिव का सीधे सार्वजनिक संवाद से मुकाबला।

  3. विचारधारात्मक इच्छाशक्ति:
    संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय पर स्पष्ट और आक्रामक स्थिति—भले विरोध कितना भी तीखा क्यों न हो।

इंदिरा गांधी की शैली में—संघर्ष से टकराव तक

अगर आज इंदिरा गांधी होतीं, तो शायद वे तीन चीजें तुरंत करतीं—

  • बड़े लेकिन निष्क्रिय नेताओं को साइडलाइन कर नए चेहरे आगे करतीं।

  • एजेंसी या गिरफ्तारी को प्रतिरोध का प्रतीक बनातीं।

  • गरीब, किसान और हाशिये के वर्ग को नीतियों के केंद्र में लातीं।

उनकी राजनीति का सार था—“डर से नहीं, टकराव से ऊर्जा मिलती है।”
आज कांग्रेस को भी सत्ता से डरने के बजाय संघर्ष में आत्मविश्वास दिखाना होगा। यही इंदिरा काल की प्रासंगिक सीख है।

भविष्य का रास्ता: पुनर्निर्माण की तीन धुरी

  1. जमीनी पुनर्गठन:
    हर राज्य में ब्लॉक स्तर तक सक्रिय इकाइयाँ, डिजिटल डेटा प्रबंधन, और परफॉर्मेंस ऑडिट आधारित प्रणाली का विकास।

  2. स्पष्ट नैरेटिव:
    एक या दो भावनात्मक रूप से जुड़ने वाले, सरल नारे—जैसे “संविधान बचाओ, जनाधिकार भरो”—जो सीधे लोगों के जीवन से बोलें।

  3. संबंध और संवाद:
    राहुल गांधी सहित शीर्ष नेतृत्व को पार्टी कार्यकर्ताओं और जनसमूह के साथ लगातार मनोवैज्ञानिक जुड़ाव बनाए रखना होगा।

एक ऐतिहासिक अवसर

कांग्रेस आज उसी चौराहे पर खड़ी है, जहां इतिहास ने उसे कई बार खड़ा किया है—1947 में सत्ता की जिम्मेदारी, 1969 में संगठनात्मक संकट, 1977 में पराजय, और 1998 में पुनरुत्थान। हर दौर में उसने खुद को नया रूप दिया।
अब वक्त है कि वह एक बार फिर अपने संघर्षों में उम्मीद तलाशे।

कांग्रेस के पास अभी भी राष्ट्रीय नेटवर्क है, पर्याप्त अनुभवी नेतृत्व है, और वैचारिक पूंजी भी बरकरार है।
जो कमी है, वह है “निर्णय की स्पष्टता और संघर्ष की ईमानदारी।”

अगर कांग्रेस इसे साध लेती है—तो विपक्ष की नेता नहीं, फिर एक वैकल्पिक केंद्र बनने की संभावना उसके सामने खुली है।
लेकिन अगर आत्ममंथन केवल बयान बनकर रह गया, तो यह इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक संपत्ति का सबसे दुखद ह्रास भी साबित हो सकता है।

Tesari Aankh
Author: Tesari Aankh

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