BJP National President: लोकसभा चुनाव 2024 के बाद भाजपा में संगठनात्मक मंथन तेज़ है और पार्टी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर संघ-भाजपा के बीच जारी रस्साकशी अब निर्णायक मोड़ पर पहुंचती दिख रही है। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि आरएसएस, भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) संजय विनायक जोशी को एक बार फिर राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने की कवायद में जुटा है और उनके नाम पर गंभीरता से विचार हो रहा है।
संघ की रणनीति और जोशी की वापसी की चर्चा
सांगठनिक हलकों में माना जा रहा है कि 2014 और 2019 की तुलना में 2024 के आम चुनाव में अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन के बाद भाजपा को एक ऐसे चेहरे की जरूरत महसूस हो रही है जो वैचारिक रूप से संघ की लाइन पर चलते हुए जमीनी कार्यकर्ताओं को दोबारा केंद्र में ला सके। संजय जोशी लंबे समय तक आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हैं और 2001 से 2005 के बीच भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री के रूप में कई राज्यों में पार्टी की जड़ें मजबूत करने का श्रेय उन्हें दिया जाता है।
सूत्रों के अनुसार, संघ नेतृत्व का मानना है कि भाजपा को आगे की राजनीतिक लड़ाइयों में केवल सत्ता-केंद्रित रणनीति नहीं, बल्कि संगठन-चालित और विचारधारा-आधारित नेतृत्व की भी आवश्यकता है। ऐसे में संजय जोशी जैसे शांत, संगठनप्रिय और जमीन से जुड़े नेता को आगे लाना संघ की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।
मोदी-शाह फैक्टर और अंदरूनी राजनीति की अड़चन
हालांकि, संजय जोशी का नाम जितना तेजी से उभर रहा है, उतनी ही मजबूती से यह चर्चा भी है कि उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का पुराना विरोध है। दोनों नेताओं के साथ गुजरात काल से संजय जोशी के मतभेद रहे हैं और 2012 में उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दिया था, जिसके बाद वे सक्रिय राजनीति से लगभग किनारे हो गए।
पार्टी मामलों के जानकारों के अनुसार, भाजपा अध्यक्ष पद पर बार-बार फैसला टलने के पीछे एक कारण यह भी माना जा रहा है कि संघ और मौजूदा नेतृत्व के बीच सहमति वाला नाम अब तक तय नहीं हो पाया है। संघ जहां वैचारिक रूप से दृढ़, संगठन-समर्थित चेहरा चाहता है, वहीं मोदी-शाह खेमा अपने भरोसेमंद नेतृत्व मॉडल को बरकरार रखना चाहता है। नितिन गडकरी या शिवराज सिंह चौहान जैसे नाम वैकल्पिक रूप में चर्चा में हैं, लेकिन संघ कार्यकर्ताओं के बीच संजय जोशी की स्वीकृति अलग तरह की मानी जाती है।
2005 की सीडी कंट्रोवर्सी और क्लीन चिट
संजय जोशी के राजनीतिक करियर पर सबसे बड़ा धब्बा 2005 का कथित सेक्स सीडी प्रकरण रहा, जिसे लेकर उन्हें सार्वजनिक तौर पर भारी छवि संकट झेलना पड़ा और उन्होंने राष्ट्रीय पद छोड़ दिया। बाद में मध्य प्रदेश पुलिस और फोरेंसिक जांच में यह सीडी छेड़छाड़ और मनगढ़ंत पाई गई और जोशी को क्लीन चिट दी गई, हालांकि तब तक उनके राजनीतिक भविष्य को बड़ा नुकसान पहुंच चुका था। संघ खेमे में इस प्रकरण को आज भी एक राजनीतिक साज़िश के रूप में देखा जाता है, जिसने एक सशक्त संगठनात्मक नेता को हाशिए पर धकेल दिया।
संगठन में जोशी की उपयोगिता क्यों बढ़ी?
लोकसभा चुनाव 2024 के बाद भाजपा के राजनीतिक ग्राफ में आई गिरावट, कई राज्यों में कार्यकर्ताओं की नाराजगी और वैचारिक बहसों से दूर होती आंतरिक राजनीति ने संघ को दोबारा सक्रिय भूमिका में ला दिया है। हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों में हाल के विधानसभा चुनावों में संघ की सक्रिय भागीदारी और सांगठनिक दिशा-निर्देशों ने भाजपा को फिर से मजबूत प्रदर्शन दिलाया, जिससे यह संदेश गया कि चुनावी राजनीति के साथ-साथ सांगठनिक गहराई भी अनिवार्य है।
इसी संदर्भ में संजय जोशी का नाम एक बार फिर प्रासंगिक हो उठा है। वे ओबीसी पृष्ठभूमि से आते हैं, संघ-भाजपा के बीच सेतु माने जाते हैं और उन्हें जमीनी कार्यकर्ताओं का नेता कहा जाता है, जो सवर्ण, ओबीसी, दलित-आदिवासी और पसमांदा समाज में संगठनात्मक विस्तार की कोशिशों को नये ढंग से साध सकते हैं। भाजपा के अंदर एक वर्ग मानता है कि जोशी जैसे संगठनवादी चेहरे की वापसी से कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा और हाईकमान संस्कृति पर स्वाभाविक संतुलन बनेगा।
संघ-भाजपा रिश्तों पर संभावित असर
अगर संघ की पैरवी कामयाब होती है और संजय जोशी को औपचारिक रूप से भाजपा की राष्ट्रीय जिम्मेदारी मिलती है, तो इसे संघ-भाजपा रिश्तों में नए अध्याय की शुरुआत के तौर पर देखा जाएगा। इससे एक ओर जहां संघ का मनोबल और प्रभाव दोनों बढ़ेंगे, वहीं भाजपा नेतृत्व पर भी वैचारिक जवाबदेही और संगठनात्मक परामर्श की परंपरा और मजबूत हो सकती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि संजय जोशी की वापसी भाजपा के लिए महज एक चेहरों का बदलाव नहीं होगी, बल्कि पार्टी के चरित्र, आंतरिक निर्णय-प्रक्रिया और भविष्य की चुनावी रणनीतियों पर गहरा असर डाल सकती है। संघ के भीतर इसे “संगठन के आत्मसम्मान” की बहाली के रूप में देखा जा रहा है, जबकि कार्यकर्ता वर्ग के लिए यह संदेश होगा कि पार्टी में अब भी विचारधारा और संगठन-निष्ठा की कद्र बाकी है।
कौन हैं संजय जोशी?
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संजय विनायक जोशी, 6 अप्रैल 1962 को नागपुर में जन्मे, लंबे समय तक आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक रहे और बाद में भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बने।
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2001 से 2005 के बीच वे भाजपा संगठन की रीढ़ माने गए और खास तौर पर गुजरात, उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में पार्टी विस्तार पर उनका फोकस रहा।
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2005 की कथित सीडी कंट्रोवर्सी के बाद उन्होंने पद छोड़ा, लेकिन बाद में पुलिस और फोरेंसिक जांच में सीडी के साथ छेड़छाड़ की बात सामने आई और उन्हें क्लीन चिट दी गई।
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2012 में नरेंद्र मोदी से मतभेदों के बीच उन्होंने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दिया और तब से वे सक्रिय राजनीति में सार्वजनिक रूप से सीमित भूमिका में हैं।
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संघ के भीतर उन्हें संगठन-समर्पित, शांत और वैचारिक रूप से स्पष्ट नेता माना जाता है और हाल के वर्षों में फिर से भाजपा अध्यक्ष पद के संभावित चेहरे के तौर पर उनका नाम उभर रहा है।
अगर संजय जोशी अध्यक्ष बने तो तीन बड़े असर
1. संगठन पर संघ का दबदबा बढ़ेगा
संजय जोशी की नियुक्ति से आरएसएस का भाजपा पर वैचारिक और संगठनात्मक नियंत्रण मजबूत होगा। हाईकमान संस्कृति कम होकर जमीनी कार्यकर्ता-केंद्रित निर्णय प्रक्रिया बढ़ेगी, जिससे पार्टी की मूल विचारधारा को प्राथमिकता मिलेगी।
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2. कार्यकर्ता मनोबल में उछाल आएगा
जोशी को संघ प्रचारक और संगठन विशेषज्ञ मानने वाले लाखों कार्यकर्ताओं का उत्साह लौटेगा। खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भाजपा की जड़ें मजबूत होंगी, जहां उनकी पुरानी पकड़ अभी भी बरकरार है।
3. सामाजिक समावेशन में नई रणनीति
ओबीसी पृष्ठभूमि से आने वाले जोशी सवर्ण-ओबीसी-दलित संतुलन साधने में सक्षम माने जाते हैं। इससे भाजपा का पसमांदा और आदिवासी विस्तार तेज होगा, जो 2024 चुनावों की कमजोरी को पूरा करेगा।
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